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योगसार प्रवचन (भाग-१)
भगवान आत्मा को ऐसा जाना कि यह तो प्रकाश का पुंज ही प्रभु स्व-पर को प्रकाशित करे, वह चीज है। पर को अपना माने, वह चीज इसमें है ही नहीं। समझ में आया? और वह पर को प्रकाशित करता है, वह पर है, इसलिए प्रकाशित करता है – ऐसा भी नहीं है। वह स्वयं का प्रकाशक स्वभाव स्व और पर को प्रकाश की सत्ता की अस्ति से स्व और पर को प्रकाशित करता है। पर की अस्ति के कारण पर को प्रकाशित करता है – ऐसा नहीं है। समझ में आया इसमें ? ऐ... ई.... आहा...हा...!
कहते हैं कि धैर्यवान तो हो, भाई! बापू! तेरा घर तूने कभी देखा नहीं, परघर में भटका, जहाँ-तहाँ। पर घर में भटका। यह किया और वह किया, शुभ-अशुभविकल्प उठे, विकार किया वह सब पर घर है, स्वघर को देखा नहीं, कहीं आया अवश्य था। अभी भजन
आया था, उसमें आया था – वीरवाणी... वीरवाणी... वीरवाणी... में आया था न? उसमें मुखपृष्ठ पर एक वाक्य था – पर घर का, हाँ! ऐसा था। कहा, अब सब बोलने लगे हैं। स्वघर.... लोग भी कहते हैं, हाँ! समझ में आया? अब हमारे घर बनाना है, अब कब तक (ऐसा रहना)? घर बनाना हो तो ऐसे का ऐसे नहीं चलेगा। समझ में आया? ऐसा यहाँ कहते हैं, बापू! तेरा घर तुझे बनाना है या नहीं? यह राग और विकल्परहित प्रभु में कुदृष्टि दे तो यह तेरा घर बना – एकाग्र हुआ और उसमें से क्रम-क्रम से ज्ञान पक्का घर हो जायेगा मोक्ष.... मोक्ष... मोक्ष...।।
अप्पा अप्पउ जइ मुणहि तउणिव्वाण लहेहि।अब गुलांट खाता है। पर अप्पा जउ मुणिहि अब ऐसा कहते हैं । परन्तु पर पदार्थ को आत्मा मानेगा.... परन्तु आत्मा के अतिरिक्त विभाव, विकल्प और शरीर, कर्म, उदयभाव और उदय-विकार आदि अशुद्ध मलिनभाव जो जिसकी चीज में नहीं है, क्षणिक विकारीभाव नित्य-चीज नहीं है - ऐसे परपदार्थ को आत्मा मानेगा.... उसे जो आत्मा मानेगा कि यह भी मैं इस अस्तित्व में भी मैं, इस राग और विकल्प के अस्तित्व में मैं, उससे छूटेगा नहीं अर्थात् वह संसार में भटकेगा। अद्भुत संक्षिप्त, भाई ! बहुत माल निकाला है न, प्रभु !
पर अप्पा जउ मुणिहि देखो न, उसमें भी। जइ मुणिहि ऐसा यदि आत्मा को आत्मा जाने तब तो मुक्ति (पायेगा)। आत्मा को पर जाने, आत्मा आत्मारूप से अस्तिपने