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योगसार प्रवचन (भाग-१)
समझ में आया? आहा...हा... ! कैसे होगा, चिमनभाई ! हैं ? तुम तो बाहर में बहुत होशियार कहलाते हो। कहो, समझ में आया?
ऐसा समझकर हे जीव तू अपने को आत्मा जान.... बहुत संक्षिप्त में स्वयं कहा है न? जीव को सम्बोधन के लिये कहता हूँ अथवा स्वयं को सम्बोधन (के लिए कहता हूँ), अन्त में ऐसा कहेंगे। मैंने भी मेरे आत्मा के लिये, यह उसके घोलन के लिये यह शास्त्र बना है, मैं तो मेरा घोलन करता हूँ – ऐसा कहते हैं । अन्तिम गाथा में आता है न? यथार्थ आत्मा का ज्ञान कर। लो! ग्यारह (गाथा पूरी) हुई।
आत्मज्ञानी ही निर्वाण पाता है अप्पा अप्पउ जइ मुणहि तउ णिव्वाण लहेहि। पर अप्पा जइ मुणहि तुहुँ तहु संसार भमेहि ॥१२॥ निज को निज का रूप जो, जाने सो शिव होय।
माने पर रूप आत्म का, तो भव भ्रमण न खोय॥ अन्वयार्थ – (जइ) यदि (अप्पा अप्पउ मुणहि) आत्मा को आत्मा समझेगा। (तउ णिव्वाण लहेहि) तो निर्वाण को पावेगा (जउ) यदि (पर अप्पा मुणहि) परपदार्थों को आत्मा मानेगा (तहु तुहुँ संसार भमेहि) तो तू संसार में भ्रमण करेगा।
१२, आत्मज्ञानी ही निर्वाण पाता है। बारहवीं (गाथा) आत्मा के भानवाले को मुक्ति होती है। आत्मा के भान बिना संसार में भटकना होता है, इसमें दोनों बातें हैं।
अप्पा अप्पउ जइ मुणहि तउ णिव्वाण लहेहि।
पर अप्पा जइ मुणहि तुहुँ तहु संसार भमेहि ॥१२॥ यदि आत्मा, आत्मा को समझेगा.... अर्थात् भगवान आत्मा ज्ञान, दर्शन, आनन्द का पिण्ड प्रभु ज्ञातादृष्टा, वही मेरा स्वरूप और वह मैं आत्मा - ऐसे आत्मा को अपने शुद्ध