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गाथा - १०
अन्तर में से उछलकर बाहर को अपना मानता है। समझ में आया ? हैं ? सब आ गया ? मन्दिर और पूजा, यात्रा और यह सब विकल्प हैं, वे मेरे हैं (- ऐसा माननेवाला बहिरात्मा है)। ये हो भले परन्तु विभावरूप हेय है।
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मुमुक्षु - सब रोज पूजा करते हैं ।
उत्तर – कौन करता था ? करता कब है ? किया था अभी ? अभी इसमें पूजा की या नहीं ? आज थी न समवसरण की (पूजा) ? आज जल्दी थी, सवा सात (होती है परन्तु आज सात (बजे) थी। ऐसा कहते थे न ? कोई कहता था ? हो, उसके काल में भाव हो, परन्तु वह भाव अन्तर में स्वरूप की शान्ति को या स्वरूप की अखण्डता को वह भाव कुछ मदद करता है या स्वभाव को लाभ करता है - ऐसा नहीं है। फिर भी वह भाव व्यवहाररूप से आये बिना नहीं रहता है । अरे... अरे... !
जैसे आत्मा है, परिपूर्ण प्रभु सच्चिदानन्दस्वरूप अखण्डानन्द एक है, इसी प्रकार यह शरीरादि जड़ भी है या नहीं ? मिट्टी आदि है, यह रजकण है या नहीं ? ऐसे वस्तु एक रूप से प्रभु अन्तर शुद्ध चैतन्य का भान होने पर भी, जैसे दूसरी चीज कहीं चली नहीं जाती - ऐसे अन्दर में जब तक पूर्ण दशा प्राप्त न हो, तब तक ऐसा व्यवहार खड़ा होता है परन्तु वह पररूप से होता है, स्वरूप से गिनने के लिये नहीं होता । आहा... हा.... चिमनभाई ! बहुत कठिन बात है । ए.... मोहनभाई ! क्या परन्तु ? तब ऐसा कहोगे तो पूरे दिन कोई कुछ नहीं करेगा । कहाँ गये ?
मुमुक्षु - उत्साह उड़ जाता है ।
उत्तर - उत्साह उड़ जाता है ! सत्य का तो सत्य स्वरूप है - ऐसा रखना चाहिए । सत् के कोई खण्ड करना चाहिए ? सत्यवस्तु को वस्तुरूप से रखो, फेरफार मत करो । आहा...हा... ! कहो, रतनलालजी ! कैसा है ? ऐसी कठोर बात (सुनेंगे तो ) इन्दौरवाले सब चिल्ला उठेंगे।
यहाँ तो कहते हैं कि श्रावक का व्यवहार आचरण और साधु का व्यवहार आचरण, यह भी मुझे हितकर है - ऐसा माननेवाला बहिरात्मा मिथ्यादृष्टि है - ऐसा कहते हैं । क्योंकि यहाँ तो उदयभाव में राग लिया है न ? समझ में आया ? भगवान आत्मा..... फिर