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________________ योगसार प्रवचन ( भाग - १ ) विकल्प रागादि को अपना स्वरूप माने, उसे अपण्ड्यो कहा है अर्थात् एकत्वबुद्धिवाला कहा है, इसलिए अपण्डयो कहा अर्थात् मूर्ख कहा है, बहिरात्मा कहा है। यह तो फिर उस पण्ड्या पर दिमाग गया कि पण्ड्या अर्थात् क्या होगा ? उसमें लिखा है, पण्ड्या अर्थात् बुद्धि । भेदविज्ञान की बुद्धि और यह (अज्ञानी) अभेद ( मानता है) । स्वरूप में राग और पुण्य भिन्न है, उन्हें एक माननेवाला, वह अपण्ड्या, मूर्ख और बहिरात्मा है। समझ में आया ? ६९ सो बहिरप्पा जिणभणिउ देखो ! वीतराग सर्वज्ञ परमेश्वर, जिन्हें एक समय में सेकेण्ड के असंख्य भाग में ज्ञान की ज्योत केवलज्ञानरूप से पूर्ण प्रगट हो गयी, चैतन्यसूर्य अन्दर पूर्ण सत्व पड़ा है । सर्वज्ञस्वभावी सत्व । आत्मा अर्थात् सर्वज्ञ - ज्ञ - स्वभावी, ज्ञ -स्वभावी, ज्ञ साथ में पूरा ज्ञ लो तो सर्वज्ञस्वभावी – ऐसा भगवान आत्मा, , सर्वज्ञस्वभावी वस्तु आत्मा का अन्तर ध्यान करके जो सर्वज्ञस्वभाव जिसकी दशा में - अवस्था में प्रगट हो गया - ऐसे सर्वज्ञ परमेश्वर यह कहते हैं कि ऐसे सर्वज्ञस्वभावी आत्मा के अतिरिक्त दूसरी चीज को अपने लाभ के लिये माने, हित के लिये माने अर्थात् अपनी माने, उसे बहिरात्मा कहा जाता है । कहो, इसमें समझ में आया या नहीं ? ऐ... प्रवीणभाई ! भगवान..... भगवान... भगवान... भगवान... भगवान... भगवान... भगवान... भगवान... भगवान... ए... भगवान...! भगवान... भगवान... करे, यह विकल्प है, कहते हैं । इस विकल्प से आत्मा को लाभ माननेवाला बहिरात्मा है - ऐसा यहाँ कहते हैं, लो ! आपने सब पक्का कराया। पक्का करा लेना है, उसकी शैली प्रमाण बोले न ! कहो, धीरुभाई ! मुमुक्षु उत्तर क्या है इसमें? एक, दो वस्तु है। एक ओर भगवान पूर्णानन्द का नाथ परमात्मस्वरूप स्वयं परम स्वरूप है, आत्मा अर्थात् परमस्वरूप । शुद्ध ध्रुव चैतन्य भगवान परमस्वरूप आत्मा को अपना मानना, वह तो सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और धर्म दशा हुई। ऐसा इसने अनन्त काल से नहीं माना। ऐसे स्वभाव से विरुद्ध अल्पज्ञ अवस्था, अल्पदर्शी, अल्प वीर्य या पुण्य -पाप के विकल्प या संयोगी बाह्य चीज में कहीं भी मुझे साधन है, हितकर है, लाभकारक है, मेरा है, उसमें मैं हूँ, वे मेरे हैं - ऐसी मान्यता को बहिरप्पा ( कहते हैं) । यह आत्मा
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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