________________
गाथा - १०
यह सब असिद्धभाव, अपूर्णभाव, मलिनभाव, विपरीतभाव, खण्ड-खण्डभाव.... समझ में आया? उसे अपना स्वरूप माने, वह बहिरवस्तु है | भगवान अन्तर चिदानन्द की मूर्ति अखण्ड आनन्दकन्द ध्रुव चैतन्य है। उसे अपना स्वरूप न मानकर, जो उसमें से निकल जाता है, टिकता नहीं है.... टिकते तत्त्व के साथ जो टिकता नहीं है, उसे अपना माने उसे बहिरात्मा मूढ़ जीव कहते हैं । अद्भुत व्याख्या कठोर ! ए...' रतिभाई !
६८
बहिर - ऐसा शब्द है न यहाँ तो ? बहिर । देहादिउ सो बहिरप्पा.... बहिरप्पा बाहिर में आत्मा माननेवाला, ऐसा... भगवान आत्मा ज्ञायक की मूर्ति, चैतन्यसूर्य अनाकुल आनन्द का कन्द – ऐसा स्वतत्त्व स्वयंसिद्ध, उसे अपना न मानकर, उससे बाह्य के किसी भी विकल्प आचारादि के, व्यवहार आचार के, हाँ ! व्यवहार क्रिया के, व्यवहार महाव्रत के.... समझ में आया ? समकित का व्यवहार श्रद्धा के आठ विकल्प, ज्ञानाचार के, चारित्राचार के व्यवहार के यह सब विभाव मेरा स्वभाव है अथवा इस विभाव से मेरा हित होगा - ऐसा माननेवाला उस विभाव को ही बहिर, बहिर को ही आत्मा मानता है । है न ?
देहादिउ जे पर कहिया ते अप्पाणु मुणेइ । उसे आत्मा जानता है । हम शब्दार्थ करते हैं । यह तो महासिद्धान्त है । आहा... हा...! समझ में आया ?
देहादिउ जे पर कहिया एक स्व रह गया, इसके अतिरिक्त (बाकी सब ) पर । ते अप्पाणु मुणेइ । उसे आत्मा माने अर्थात् उससे हित माने अर्थात् उस पुण्य-पाप के रागादि विभाव आचार को अपने स्वभाव का साधन माने तो स्वभाव और विकार दो एक माननेवाला, उसे ही आत्मा मानता है । सो बहिरप्पा उसकी दृष्टि ही चिदानन्द ज्ञायकभाव तरफ नहीं है, उसकी दृष्टि वहाँ आगे वह खण्ड-खण्ड आदि रागादिभाव या अल्पज्ञ आदि, उसमें जिसकी बुद्धि पड़ी है, वे सब (बहिरात्मा हैं) । उसमें कहा था न ? पण्डित, भेदविज्ञानी पण्ड्या अर्थात् बुद्धिवाला - ऐसा कहा न ? यहाँ अपण्ड्या लेना, ऐसा मेरा कहना है । है ?
पुण्य-पाप का रागभाव, शरीरभाव, वाणी से भिन्न - ऐसा भेदज्ञान, ऐसा पर से भेदज्ञान, स्वभाव तरफ की एकता (जिसे हुई है), उसे पण्डित कहा है। उस जीव को अन्तरात्मा कहा है। उसने आत्मा है, वैसा जाना, माना कहा जाता है। उससे विरुद्ध