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________________ योगसार प्रवचन (भाग-१) ७१ वापस किये बिना रहे नहीं, कितने ही फिर ऐसा कहते हैं । भाई! तुम्हें पता नहीं है, बापू! वह भाव होता है, आता है। आत्मा का कर्तृत्व नहीं परन्तु कमजोरी के काल में वह भाव आता है, फिर भी हितकारी नहीं है। हितकारी नहीं है तो लाये किसलिए? लाता नहीं परन्तु आता है। आहा...हा...! आ...हा...! ए... बज्जूभाई! बहिरप्पा जिणभणिउ, जिणभणिउ वीतराग परमेश्वर ने ऐसा कहा है। सर्वज्ञ त्रिलोकनाथ परमात्मा पूर्ण दशा जहाँ प्रगट हुई, वाणी में इच्छा बिना यह बात ऐसे आयी है। आहा...हा...! ए... कान्तिभाई ! यह अद्भुत बात, भाई ! अन्य कितने ही कहते हैं, यह सोनगढ़ की (बात अटपटी है) परन्तु यह सोनगढ़ की है या किसी के घर की है यह? मुमुक्षु - सोनगढ़ की हो तो क्या आपत्ति? उत्तर – परन्तु यह सोनगढ़ का अर्थात ऐसा, ऐसा उसके मन में (होता है)। अकेला एकान्त... ऐसा! हमारा अनेकान्त है – ऐसा कहते हैं। यहाँ कहते हैं कि यह बाहर के विकल्प हैं, भाई ! हो, परन्तु यह कोई आत्मा का कल्याण करनेवाले हैं और आत्मा का स्वरूप है – ऐसा मानना, वह मिथ्यात्व है। मेरे स्वरूप में मैं हूँ और वे मेरे में नहीं हैं, इसका नाम अनेकान्त कहा जाता है परन्तु यह मैं शुद्ध भी हूँ और मलिनभाव भी हूँ – ऐसा अनेकान्त हो सकता है ? समझ में आया? मैं निश्चयस्वरूप से शद्ध अखण्ड आनन्द हँ, वैसे व्यवहारस्वरूप से विकल्प और विभाव भी मैं हूँ – ऐसा कोई हो सकता है ? समझ में आया? अद्भुत बात... परन्तु इसमें कभी अनन्त काल में यह बात लक्ष्य में नहीं ली है। आहा...हा...! _ 'सो बहिरप्पा जिणभणिउ' ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है। 'पुण संसार भमेइ' बस ! फिर से ऐसा का ऐसा परिभ्रमण करेगा। अनादि काल से ऐसे पर को अपना मानता आया है और पर को इसे छोड़ना नहीं, तो पर को छोड़ना नहीं अर्थात् पर में वह परिभ्रमण करेगा। पुणु संसार भमेइ देखो! बारम्बार.... ऐसे फिर पुणु का (अर्थ किया) संसार में भ्रमण किया करता है। ऐसा आत्मा अनादि काल से आत्मा की मूल चीज को जाने बिना, असली स्वभाव को जाने बिना, विकृतरूप को अपना स्वरूप मानकर (परिभ्रमण किया करता है)। कहो, समझ में आया?
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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