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गाथा - ९
मुमुक्षु - उपादान तैयार हो और निमित्त न हो तो......?
उत्तर - निमित्त न हो यह प्रश्न ही नहीं है। एक कारण हो और दूसरा कारण न हो
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• यह बात ही झूठी है। समझ में आया ? ऐसे भगवान ने समस्त कारणों को एक साथ देखा
है, इसमें आगे-पीछे भगवान के ज्ञान में कुछ नहीं है। भगवान के ज्ञान में लोकालोक ज्ञात
हो गया है, भूत-भविष्य और वर्तमान तीन काल सब ज्ञात हो गये हैं।
मुमुक्षु - उसमें पुरुषार्थ मारा जाता है।
उत्तर - इसी में पुरुषार्थ है। भगवान ने जो जाना, उनकी सर्वज्ञदशा इतनी - ऐसी सर्वज्ञदशा की पर्याय का स्वीकार करने जाये, तब उसके द्रव्यस्वभाव में, ज्ञायकस्वभाव में दृष्टि पड़े बिना उसका स्वीकार नहीं होता । समझ में आया ? भगवान की एक समय की एक ज्ञान की पर्याय इतना • तीन काल तीन लोक ज्ञाता, युगपत्ररूप से जाने सचराचर... ऐसे ज्ञान का स्वीकार, वह क्या राग से कर सकते हैं ? राग के आश्रय से स्वीकार होता है? यह पर्याय से स्वीकार होता है परन्तु पर्याय के आश्रय से स्वीकार होता है ? समझ में आया ?
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भगवान सर्वज्ञप्रभु अकेला ज्ञेय - मूर्ति प्रभु, ज्ञेय - मूर्ति अर्थात् सर्वज्ञस्वरूपी आत्मा का आश्रय लिये बिना सर्वज्ञ की पर्याय का निर्णय नहीं होता । यह निर्णय होने पर उसे क्रमबद्ध का (निर्णय होता है) और वीतरागी पर्याय प्रगट हो गयी। सब निर्णय हो जाता है, यही पुरुषार्थ है। पुरुषार्थ कहीं अलग है क्या ? अन्तर की झुकावदशा कर्तृत्व में थी, वह अन्तर में अकर्तृत्व में गयी, वह पुरुषार्थ है। समझ में आया ?
एक राग का भी कर्ता नहीं । अनन्त संयोग पदार्थ में अपनी उपस्थिति के कारण वहाँ फेरफार होता है – ऐसा वह नहीं मानता। वह तो, मेरी उपस्थिति मुझमें है, उनकी उपस्थिति उनमें है, उनसे होता है - ऐसा जानता हुआ पर का कर्ता नहीं होता । कहो, समझ में आया? पूरे साँचे को ऐसे हिलावे.....
मुमुक्षु - पर का भले न करे परन्तु पर में निमित्त तो होता है न ?
उत्तर - किसे निमित्त होता है ? यह मानता है कि मैं वहाँ जाकर निमित्त था ? क्या