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योगसार प्रवचन (भाग-१)
या नहीं? ऐ...! देवानुप्रिया! पढ़ाया है या नहीं वह? क्या अभी हाँ करते हो? यह क्रमबद्ध का वहाँ नहीं आया, क्या था उसमें ? हैं, हाँ... ई....!
मुमुक्षु – शास्त्र में भी नाम नहीं लिखे....
उत्तर – क्या शास्त्र में अनन्त के कितने नाम लिखे? कितने के नाम लिखें शास्त्र में? सिद्धान्त, शास्त्र में सिद्धान्त दें कि भाई ! इस अग्नि में से मरकर मनुष्य नहीं होता। समझ में आया? मनुष्य मरकर अग्नि में जाएगा, परन्तु कौन-सा मनुष्य? दृष्टान्त तो कितने दें? दृष्टान्त नहीं दिये इसलिए अनियत है ? ऐसा कहाँ से निकाला? वाणी में सब आता ही नहीं, वाणी में तो पूरा आता नहीं। सर्वज्ञ की वाणी में भी पूरा नहीं आता। तीन काल तीन लोक जितना ज्ञात हुआ, उतना सब कहाँ से आयेगा एक साथ? उसके न्याय, उसके समुदाय से पूरा तत्त्व कैसा है – ऐसा आता है। समझ में आया?
___ यहाँ तो भगवान परमेश्वर को विष्णु कहते हैं। क्यों? कि ज्ञान की अपेक्षा से सर्व लोकालोक व्यापी.... कोई सामान्य विशेष जानने का बाकी नहीं। भविष्य का कोई समय उन्हें बाकी नहीं कि इस समय में ऐसा आवे तो होगा, नहीं तो नहीं होगा - ऐसा भगवान को (नहीं है)। ऐसा वे सर्वज्ञ को नहीं मानते।
मुमुक्षु – संयोग कौन सा आवे यह निश्चित नहीं? उत्तर – कहाँ सब निश्चित नहीं? ऐसे और ऐसे पके हैं, हैं ?
द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव – गुण, राजनीति में चार । त्रास बिना प्रभु जड़ चेतन की कोई न लोपे काल। सारी दनिया तीन काल तीन लोक भगवान का ज्ञान उस प्रकार परिणमित हो रहा है। उसमें कोई अनियत बाकी होगा? भविष्य की कोई पर्याय, पानी को अग्नि आवे तो गर्म होगा, न आवे तो नहीं होगा - ऐसा होगा या नहीं? हैं? रतिभाई! कैसा होगा? कैसा नहीं होगा? अग्नि का संयोग मिला नहीं, तो? पानी गर्म नहीं होगा, लो! परन्तु जिसे गर्म होने का काल है, उसे अग्नि का निमित्त वहाँ नहीं है – ऐसा कौन कहता है ? दोनों निश्चित हो गये हैं, अनादि से सब निश्चित है। जहाँ पर्याय जो होनी है, वहाँ उस पर्याय को अनुकूल निमित्त सामने होता ही है। समझ में आया?