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गाथा-८
का अर्थ क्या? सो संसार मुएइ'। जानने का अर्थ वह अनुभव करता है। देखो! इन्होंने यहाँ अर्थ किया है। जानने की व्याख्या क्या?
__अपने कलश टीकाकार तो यही अर्थ करते हैं। जानने का अर्थ क्या? यह ज्ञान करना चाहिए, अकेला? अन्दर स्थिरता, आत्मा का अनुभव करना, आनन्दस्वरूप का अनुभव (करना), उसे जाना कहा जाता है। आत्मा ऐसा पर में अनादि से स्थिर था, वह दृष्टि बदलकर अन्तर में आया तो स्थिरता के बिना किस प्रकार अन्दर आया? वह अन्तर में स्वरूपाचरण का भाव प्रगट हुआ। अनन्तानुबन्धी का अभाव हुआ, चौथे गुणस्थान में स्वरूपाचरण प्रगट हुआ। समझ में आया? अभी पण्डितों में इसका बड़ा विवाद चलता है। दूसरे कहते हैं होता नहीं, चौथे में मात्र ज्ञान ही होता है; अनुभव, आचरण तो पाँचवें में होता है। ऐसे पके हैं न! उस थोर (काँटेदार वृक्ष) पर केले पके, यह केले में काँटे पके। समझ में आया?
कहते हैं, अपने आत्मा का अनुभव करता है... देखो! शीतलप्रसादजी कितना अर्थ ठीक करते हैं ! भगवान आत्मा... ! है न उनका श्लोक? इसमें श्लोक है, वह इन्होंने नहीं रखा? इसमें उनका श्लोक इनने नहीं रखा है। इनका बनाया हुआ है वह नहीं । इनने कहाँ बनाया है ? यह तो दूसरों ने बनाया है न? वह इसमें नहीं।
_ 'सो संसार मुएइ' जो स्वरूप का आदर करनेवाला, शुद्ध चैतन्यवस्तु का अनुभव करनेवाला, परमभाव को छोड़नेवाला बीच में भेदज्ञान होने से क्रम-क्रम से संसार को छोड़ देता है। छूट जाएगा, संसार रहेगा नहीं – ऐसे जीव को पण्डित और ज्ञानी और वीर व शूरवीर कहा जाता है । कहो, समझ में आया? बहुत आधार लिये हैं।
परमात्मा का स्वरूप णिम्मलु णिक्कलु सुद्ध जिणु विण्हु बुद्ध सिव संतु। सो परमप्पा जिणभणिउ एहउ जाणि णिभंतु॥९॥ निर्मल-निकल-जिनेन्द्र शिव, सिद्ध विष्णु बुद्ध शान्त। सो परमातम जिन कहे, जानो हो निर्धान्त॥