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________________ योगसार प्रवचन (भाग-१) अन्वयार्थ – (णिम्मलु) जो कर्मफल व रागादि मल रहित है (णिक्कलु) जो निष्फल अर्थात् शरीर होता है ( सुद्ध) जो शुद्ध व अभेद एक है (जिणु) जिसने आत्मा के सर्व शत्रुओं को जीत लिया है (विण्हु) जो विष्णु है अर्थात् ज्ञान की अपेक्षा सर्व लोकालोक व्यापी है, सर्व का ज्ञाता है (बुद्ध) जो बुद्ध है अर्थात् स्व-पर तत्त्व को समझनेवाला है (सिव) जो शिव है, परम कल्याणकारी है (संतु) जो परम शान्त व वीतराग है ( सो परमप्पा ) वही परमात्मा है (जिणभणिउ) ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है (एकउ णिभंतु जाणि) इस बात को शङ्का रहित जान। नौवीं (गाथा) परमात्मा का स्वरूप। पहले बहिरात्मा का कहा, दूसरा अन्तरात्मा का कहा, अब परमात्मा का (स्वरूप) कहते हैं। णिम्मलु णिक्कलु सुद्ध जिणु विण्हु बुद्ध सिव संतु। सो परमप्पा जिणभणिउ एहउ जाणि णिभंतु॥९॥ देखो! इसमें यह आया, हाँ! 'जिणभणिउ'।कुन्दकुन्दाचार्य जैसे 'जिणभणिउ' कहते हैं, यह भी 'जिणभणिउ' ऐसी सीधी बात करते हैं, हाँ! एहउ जाणि णिभंतु' पहले बहिरात्मा की बात की। वह बहिर, वस्तु जो अन्तर में कायम की चीज है, उसे न मानकर क्षणिक और विकारी और संयोग को स्वीकारता है, वह बहिरात्मा है। अन्तरात्मा, त्रिकाली ध्रुवस्वरूप को – स्वभाव को स्वीकारता है और क्षणिक रागादि का आदर नहीं करता, परभाव को छोड़ता हुआ, अपने स्वरूप का अनुभव करता हुआ संसार से मुक्त होता है। अब, परमात्मा की बात है। जो कर्ममल, और रागादि मलरहित है... 'णिम्मलु' यहाँ तो राग-द्वेष के मलरहित है। परमात्मा को (अब मल नहीं है)। अन्तरात्मा को अभी राग-द्वेष थे। भिन्न पड़े थे परन्तु पूर्णतः छूटे नहीं थे, पूर्णतः छूट जाये तो परमात्मा हो जाये। दृष्टि से एकत्वबुद्धि से छूटे थे। अन्तर आत्मा में सम्यग्दृष्टि को पुण्य-पाप का भाव एकत्वबुद्धि से छूटा था परन्तु स्थिरता द्वारा पूर्ण छूटा नहीं था। वह यहाँ
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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