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योगसार प्रवचन (भाग-१)
'सो संसार मुएइ' लो! है न अन्तिम शब्द? वह संसार से छूट जाता है। देखो! परभाव को दृष्टि में से छोड़ता है। जिसे श्रद्धा में.... श्रद्धा अर्थात् अकेली मान्यता – ऐसा नहीं। जो श्रद्धा में आत्मस्वरूप पकड़ा है, ज्ञान से वेदन पकड़कर पूरा प्रत्यक्ष ज्ञानस्वरूप भगवान आत्मा ज्ञान में प्रत्यक्ष हो गया है। समझ में आया? इससे आत्मा का कोई रहस्य कुछ बाकी नहीं रहता। स्वरूप दृष्टि में आ गया है और उससे विरुद्ध का त्याग वर्तता है; इस कारण उसे संसार छूट जाएगा, लो! 'सो संसार मुएइ'। दूसरा संसार में भटकेगा - ऐसा कहा था न? उसके सामने यह । उसमें कहा था 'संसारु भमेइ' । बहिरात्मा बाह्य चीजों को कर्म की सामग्री को; कर्म की सामग्री अर्थात् समस्त (सामग्री) अल्पज्ञपना, अल्प वीर्यपना, राग-द्वेषपना, संयोगपना, स्त्री, पुत्र, सब हीनपना, दीनपना, सब (अपना मानता है)। समझ में आया? बाहर की चीज से अधिकपना माना और स्वरूप का अधिकपना दृष्टि में से छूट गया, बस! वह संसार में भटकेगा। क्योंकि उसकी अधिकता दृष्टि में से छूट गयी है; इसलिए नये कर्म बाँधेगा और चार गति में परिभ्रमण करेगा। भगवान अन्तर-आत्मा अपने शुद्ध चैतन्यस्वरूप को (अपना मानता है) उसका तो पता नहीं होता और बाह्य त्याग की बातें करना। कहो, अब....
मुमुक्षु – पंचम काल में उससे धर्म होता है।
उत्तर – पंचम काल में धर्म, धर्म की रीति से होता होगा या दूसरी रीति से होता होगा? मुँह से खाते होंगे या कान से खाते होंगे पंचम काल में? हैं? मुँह से खाते हैं? पंचम काल में अन्तर नहीं पड़ता है ? मार्ग में कुछ अन्तर पड़ता होगा?
___ यहाँ तो कहते हैं कि अपने आत्मा का अनुभव करता है। देखो, 'अप्पा मुणहिं।' भगवान आत्मा, शुभाशुभराग के अभावस्वभावस्वरूप पूर्ण ज्ञान, आनन्दस्वरूप है। ऐसे आत्मा को अन्तर आत्मा (अनुभव करता है)। अन्तर आत्मा चौथे गुणस्थान से है या नहीं? है ? अपने आत्मा का अनुभव करता है। यह चौथे से है या यह अन्तर आत्मा आठवें (गुणस्थान से) है? आहा...हा...! क्या इसमें पाठ है ? देखो न ! देखो! 'सो पंडिउ' अन्तर आत्मा की व्याख्या है, 'अप्पा मुणहिं।' जो ज्ञानी आत्मा है, स्व-पर को जानता है, परभाव को छोड़ता है, वह पण्डित 'अप्पा मुणहिं' आत्मा को जानता है। जानने