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गाथा-७
चेष्टाएँ हों अथवा किसी के शरीर में भूत लगा हो, भूत आता है न अपने ? समयसार में। फिर भूत जैसी चेष्टा हो, वह मानता है कि यह मेरी (चेष्टा) हुई। ऐ... ई...! आता है या नहीं? हैं ? भूताविष्ट.... भूत प्रविष्ट किया हो, फिर यह हो तो जानता है कि यह सब मुझे होता है। मैं ज्ञानानन्द भिन्न आत्मा, यह भिन्न आत्मा है – ऐसा जिसे पता नहीं, वह भूत की चेष्टा वे मेरी । ऐसी अनादि काल के कर्म के संग की चेष्टा-अभ्यन्तर और बाह्य, यह सब मेरी है (ऐसा अज्ञानी मानता है)। समझ में आया? वह भत है, भत!
___ यह किसकी बात चलती है ? पूरा नहीं जानता इसलिए जानना। एक समय में भगवान त्रिकालमूर्ति पूर्ण है, उसकी दृष्टि करना अर्थात् उसकी सत्ता का स्वीकार होने पर अल्पज्ञ और राग-द्वेष, संयोग की सत्ता, सब का स्वीकार भूल जाएगा। कहो, समझ में आया या नहीं? धीरुभाई! आहा...हा...! बड़ी यन्त्र और.... लो, चलते हों और पच्चीस, पचास, सौ लोग काम करते हों, दो सौ मनुष्य काम करते हों, हैं ?
प्रश्न – यन्त्र हों इसलिए चलाना न?
उत्तर – वह भूत... सब कर्म की चेष्टाओं के सब फल हैं। पुण्य-पाप के फल बाहर में आये, अन्दर में घाति के फल राग-द्वेष आये, अल्पज्ञपना राग-द्वेष इत्यादि अन्दर आया। तीन कर्म के कारण अल्पज्ञ अल्पदर्शी और अल्पवीर्य, एक कर्म के कारण विपरीतता (आयी) और दूसरे कर्मों के कारण संयोग (प्राप्त हुए)। कहो, समझ में आया या नहीं? क्या करना इसमें? उत्साह भंग हो जाये, ऐ...ई...! पढ़ने में पास होवे तो मिथ्यादर्शन से मानता है कि मैं अब कुछ बढ़ा। क्या होगा? ऐ...ई... ! आशीष! क्या करना इसमें?
भाई! बड़ा परमेश्वर एक ओर पड़ा है, उसे तू पीठ देकर, आड़ मारकर, उससे विपरीत अल्पज्ञानादि और रागादि विकल्प तथा संयोग उनका स्वीकार करे तो परमात्मा त्रिलोक के नाथ का अनादर और मिथ्यात्वभाव होता है। आहा....हा...! समझ में आया, कुछ ? 'पुण संसारु' भगवान ने उसे बहिरात्मा कहा है। ऐसा श्री जिनेन्द्र ने कहा है। वह चार गति में भटकता है। लो! यह सातवाँ श्लोक (पूरा) हुआ। आठवाँ.... अपने तो इस श्लोक का सार-सार कहना है न ! यह सब कथन पढ़ेंगे तो पार कहाँ आवे? यह तो सब आधार दिये हैं।