SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 47
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ योगसार प्रवचन (भाग-१) ४७ वह बारम्बार... 'पुण संसारु भमेइ' ऐसा। पुनः संसार में भटकेगा। अनन्त काल तो भटका परन्तु इस बुद्धि से जिन्हें महत्व दिया है, उससे वह छुटेगा नहीं, पुण्य -पाप का भाव, संयोग और अल्पज्ञदशा आदि को महत्व दिया है, वह महत्व उसकी दृष्टि में से छटेगा नहीं तो वह अल्पज्ञपना. विकार और संयोग उसका छटेगा नहीं। चार गति में वह परिभ्रमण करेगा। कहो, समझ में आया? है या नहीं? सामने पुस्तक है ? अनादि -अनन्त लिखा है न? यह श्लोक देखने को लिखा है। चौथा श्लोक देखने को लिखा है। कहो, समझ में आया? 'सो बहिरप्पा जिणभणिउ' वीतराग परमेश्वर त्रिलोकनाथ केवलज्ञानी परमात्मा ने उसे – मिथ्यादृष्टि जीव को बहिरात्मा कहा है। कहो, इसमें कुछ समझ में आया? ऐ... ई...! लड़कों! इसमें कुछ समझ में आया या नहीं? एक ओर परमात्मा का पिण्ड प्रभु पूरा द्रव्य – वस्तु है – ऐसा कहते हैं। आत्मा में.... परिपूर्ण ज्ञान-दर्शन, आनन्दादि पूर्ण वस्तु एक ओर पड़ी है, स्वयं प्रभु; और एक ओर उसकी वर्तमान दशा में अल्पज्ञ ज्ञान, अल्प दर्शन, अल्प वीर्य और राग-द्वेष की विपरीतता, पुण्य और पाप के कारण संयोग की अनुकूलता-प्रतिकूलता – इन सबको अपना मानता है। यहाँ मानता नहीं अर्थात् यहाँ उसे (अपना) मानता है, उसका नाम मिथ्यादृष्टि और बहिरात्मा कहा जाता है। वह बहिरात्मा पुनः पुनः चार गति में भटकने के भाववाला है। संसारु भमेइ। लो! वह भटकेगा। समझ में आया? यहाँ इन्होंने जरा दृष्टान्त दिया है। जैसे, शराब पीकर चेष्टाएँ होती हैं, उन सब चेष्टाओं को मूर्ख अपनी मानता है। शराब पीकर फिर चेष्टा होती है न? ऐसा हो, ऐसा करे, और वैसा करे और ऐसा करे.... इन सब चेष्टाओं को अपनी मानता है। इसी प्रकार कर्म के संयोग से हुई चेष्टाएँ – विकार और पर, इन सबको मिथ्याभाव से मिथ्यात्वभाव की मदिरा पीया हुआ, उसके कारण कर्म के भाव से होनेवाली चेष्टाएँ, पुण्य-पापभाव आदि, कर्म मन्द पड़े और उघाड़ आदि ये सब कर्म की चेष्टाएँ हैं। कुछ समझ में आया? इन सब भावों को अपना मानता है। समझ में आया? जैसे, शराब पीकर सब
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy