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________________ ४७० गाथा - ६६ मार्ग है, दूसरा मार्ग नहीं। ऐसी बात सुननेवाले सभा में भी दुर्लभ है - ऐसा कहते हैं। समझ में आया ? जिसे निमित्त रुचता हो, राग रुचता हो, व्यवहार रुचता हो, उसे यह बात सुनना कठिन है। सुनना मुश्किल है। नहीं, ऐसा नहीं होता, ऐसा नहीं होता, ऐसा नहीं होता ऐसा कहते हैं । इसलिए कहते हैं कि 'विरला तत्तु णिसुणहि' विरल प्राणी... भगवान आत्मा की त्रिकाल शुद्ध चैतन्यधातु में एकाकार होना ही मोक्ष का मार्ग है, यही योगसार, यही कल्याण का मार्ग है, यही मोक्ष का उपाय है। यह बात सुननेवाले भी जगत में बहुत विरल हैं। समझ में आया ? पुण्य की बातें, निमित्त की बातें, व्यवहार की बातें सुननेवाले थोक के थोक पड़े हैं – ऐसा कहते हैं । परन्तु यह आत्मा शुद्ध अखण्डानन्द का कन्द है, ध्रुव अखण्डानन्द प्रभु की अन्तर में दृष्टि करके रमना, ऐसा योग, उसका भी सार यह सुननेवाले दुर्लभ हैं । कहो, समझ में आया ? ‘विरला झायहि तत्तु' और विरल जीव, उसका ध्यान करते हैं। भगवान आत्मा की ओर का अन्तर में झुकाव (होना) और उस स्वरूप को ध्येय करके उसमें एकाकार का ध्यान करना, वह जीव विरल होते हैं। समझ में आया ? कोई पदवी इन्द्र की मिलना या राजपाट मिलना या वे जीव विरल हैं - ऐसा यहाँ नहीं कहा है और पुण्य प्राप्त करना, या पुण्य का फल मिलना, वे जीव विरल हैं - ऐसा नहीं कहा है। भगवान आत्मा अनन्त गुण का पिण्ड प्रभु है । उसका अन्तर ध्यान करनेवाले जगत् में विरल अर्थात् दुर्लभ हैं। समझ में आया ? शास्त्र के पढ़नेवाले भी बहुत होते हैं, कहनेवाले भी बहुत होते हैं परन्तु भगवान आत्मा पूर्णानन्दस्वरूप अभेद की बात सुननेवाले दुर्लभ और उसका ध्यान करनेवाले तो बहुत दुर्लभ हैं। समझ में आया ? 'विरला झायहि तत्तु' विरला जीव । 'धारहि' । 'विरला धारहिं तत्तु' धारहि का अर्थ विरल जीव, भगवान आत्मा निर्विकल्प रागरहित चीज है और रागरहित निर्मल परिणति द्वारा वह अनुभव की जा सकती है - ऐसा अनुभव होकर धारणा होना, ऐसे (जीव) जगत् में दुर्लभ है। समझ में आया ? यह धारणा, हाँ! आहा...हा...! ऐसे अवग्रह, ईहा, अवाय, धारणा, बाहर की तो बहुत है । भगवान आत्मा शुद्ध चैतन्यप्रभु का अन्दर ध्यान करके यह चीज है - ऐसा जिसने अनुभव करके धारण किया है कि चीज यह है
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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