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योगसार प्रवचन (भाग-१)
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भगवान ने भावश्रुत कहा.... भगवान के पास भावश्रुत है नहीं; उनके पास तो केवलज्ञान है परन्तु केवलज्ञान कहा – ऐसा शास्त्र में नहीं कहा। उन्होंने भावश्रुत का वर्णन किया। भाई! भगवान की वाणी में अकेले अर्थ आये, अर्थ आये; इस कारण भगवान ने भावश्रुत कहा - ऐसा कहा जाता है। उसे गणधरदेव ने सूत्ररूप से गूंथा। अर्थरूप से भगवान की वाणी में आया, सूत्ररूप से गणधर ने गूंथा – वह दिन आज है। वाणी खिरने का और बारह अंग चौदह पूर्व की रचना अन्तर्मुहूर्त में क्रमसर की। अन्तर्मुहूर्त है न? असंख्य समय है। गणधरदेव ने आज बारह अंग की रचना की। उन बारह अंग में सार में सार क्या कहा गया – यह उसका कथन है।
योगसार.... । बारह अंग में संयोग, विकल्प और एक समय की अवस्था की उपेक्षा करके, त्रिकाल ज्ञायकस्वभाव की अपेक्षा करना - ऐसा सार, योगसाररूप से भगवान की वाणी में आया है। योगसार अर्थात् भगवान पूर्णानन्दस्वरूप ध्रुव, शाश्वत्, एकरूप, अनादि-अनन्त है। ऐसी चीज में एकाकार होकर, स्वरूप के आनन्द का वेदन होना, उसे योगसार कहते हैं। स्वरूप में एकाकार होकर आनन्द का अनुभव-वेदन करना, इसका नाम योगसार कहते हैं, जो कि मोक्ष का मार्ग है। कहो, समझ में आया इसमें? कैसा योगसार?
कहते हैं – तत्त्वज्ञानी विरले होते हैं। देखो! यह कहते हैं।
विरला जाणहिं तत्तु बुह बिरला णिसुणहिं तत्तु।
विरला झायहिं तत्तु जिय बिरला धारहिं तत्तु॥६६॥
भगवान आत्मा सर्वज्ञ परमेश्वर ने जो आत्मज्ञानरूपी तत्त्व कहा, उसे अब विरले पण्डित ही आत्मतत्त्व को जानते हैं। विरले प्राणी । आत्मज्ञान प्राप्त करना महा कठिन है, उसे थोड़े से प्राणी इस अनुपम तत्त्व का लाभ प्राप्त कर सकते हैं। 'विरला जाणहिं तत्तु विरला तत्तु णिसुणहि'। सुननेवाले विरले हैं। आत्मज्ञान शुद्ध चिदानन्द की मूर्ति, उसमें अन्तर में एकाकार होना – ऐसी बात सुननेवाले भी विरले हैं। समझ में आया? कहनेवाले तो दुर्लभ हैं परन्तु सुननेवाले ऐसे दुर्लभ हैं।
जो आत्मा परमानन्दरूप ध्रुव सच्चिदानन्दस्वरूप, उसमें एकाग्र होना, वह मोक्ष का