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वीर संवत २४९२,आषाढ़ कष्णा १,
गाथा ६६ से ६८
रविवार, दिनाङ्क०३-०७-१९६६ प्रवचन नं. २४
यह योगसार शास्त्र है। योगीन्द्रदेव मुनि, दिगम्बर मुनि! आज से ७००-८०० वर्ष पहले हो गये हैं। उनका यह योगसार है। आज भगवान की दिव्यध्वनि का दिन है, उसमें यह गाथा ठीक आयी है। विरल, विरल बात है। भगवान महावीर परमात्मा को केवलज्ञान तो वैशाख शुक्ल १० को हुआ था, परन्तु छियासठ दिन तक दिव्यध्वनि नहीं खिरी। व्यवहार से ऐसा कहा जाता है कि वहाँ वाणी को झेलनेवाले गणधर की उपस्थिति का अभाव था। वस्तुत: तो वह वाणी खिरना ही नहीं थी। वह वाणी.... ६६ दिन बाद इन्द्र को विचार हुआ कि यह वाणी क्यों नहीं खिरती? तो अवधिज्ञान से देखा कि इसमें कोई पात्र - गणधर आदि नहीं है, इस कारण वाणी नहीं खिरती। वाणी खिरने का तो योग था ही नहीं परन्तु शास्त्र में निमित्त से ऐसे कथन आते हैं।
'गौतमस्वामी' गणधर के योग्य थे। इन्द्र उनके पास ब्राह्मण का रूप धारण कर गया (और कहा कि) इसका कुछ अर्थ करो – छह द्रव्य, नौ तत्त्व - सात क्या है? वह (गौतम) कहे – भाई ! मुझे नहीं आता; तुम्हारे गुरु के पास चलते हैं। उनमें छह द्रव्य के नाम नहीं होते हैं । फिर (वे) भगवान के पास आये। वहाँ तो उनकी योग्यता थी; क्षण में जहाँ (भगवान को) देखा, समवसरण देखा, वहाँ उनका मान गल गया। अन्दर गये वहाँ तो उन्हें आत्मज्ञान – सम्यग्दर्शन हुआ और भगवान की वाणी खिरी। छियासठ दिन में दिव्यध्वनि विपुलाचल पर्वत पर 'राजगृही' नगरी के बाहर वन में वहाँ भगवान की वाणी छियासठ दिन में खिरी और वह श्रावण कृष्ण एकम का - योग का पहला दिन था। योग का पहला नववर्ष था। श्रावण कृष्ण एकम को (दिव्यध्वनि) खिरी। उस दिन गणधर ने वह वाणी झेली। वाणी खिरी उस दिन झेली; उस दिन गणधरदेव, भावश्रुत ज्ञानरूप गणधर परिणत (हुए)।