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योगसार प्रवचन (भाग-१)
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और इस धारणा में से बारम्बार स्मृति करके आत्मा का ध्यान करता है – ऐसे जीव जगत् में (दुर्लभ हैं)। दिव्यध्वनि में ऐसा आया था। भगवान की दिव्यध्वनि में, बारह अंग में ऐसा आया था। विपुलाचल पर्वत पर भगवान की वाणी खिरी, उसमें यह आया था कि यह आत्मा शुद्ध अनन्त आनन्दस्वरूप है। इसका एकाग्र होकर (ध्यान करे) और यह आत्मा ऐसा है, ऐसी धारणा (करनेवाले विरल हैं)। समझ में आया?
विरला जिय तत्तु धारहिं' क्या कहते हैं? दूसरी धारणा करनेवाले तो बहुत होते हैं । शास्त्र की धारणा, बोलचाल की धारणा, कहने-बोलने की धारणा, इसका यह प्रश्न
और इसका यह उत्तर और ऐसी धारणा करनेवाले भी बहुत होते हैं। परन्तु यह भगवान आत्मा, सम्यग्दर्शन-ज्ञान में जो अनुभव में आत्मा पूर्णानन्द आया, अनुभव होकर उसकी धारणा करनेवाले जीव विरल और थोड़े हैं। समझ में आया?
___भाई ने इसका अर्थ जरा लिखा है कि आत्मज्ञान का मिलना बड़ा कठिन है, थोड़े ही प्राणी इस अनुपम तत्त्व का लाभ पाते हैं। मनरहित पंचेन्द्रिय तक के प्राणी विचार करने की शक्ति बिना.... मनरहित प्राणी हैं, उन्हें विचार करने की शक्ति नहीं है कि मैं कौन हूँ और कहाँ हूँ? संज्ञी पंचेन्द्रियों में नारकी जीव रात-दिन कषाय के कार्यों में लगे रहते हैं। संज्ञी पंचेन्द्रिय कदाचित् मनवाले हुए – ऐसा कहते हैं । मनरहित प्राणी को विचार तो है नहीं; मनवाले हुए तो नारकी में उत्पन्न हुआ, नारकी रात-दिन कषाय... कषाय... कषाय... के कार्यों में लगे हैं (उसमें) किन्हीं को आत्मज्ञान होता है। बाकी इससे अनन्त गुने, सम्यक्त्वी की संख्या से अनन्त गुने मिथ्यादृष्टियों की संख्या नारकी में ऐसी है कि उसे आत्मज्ञान क्या है? ऐसा सुना भी नहीं होता।
पशुओं में भी आत्मज्ञान पाने का साधन अल्प है। पशु में भी विरल है। देवों में विषयभोगों की अतितीव्रता है, वैराग्यभाव की दुर्लभता है, किसी को ही आत्मज्ञान होता है। मनुष्यों के लिए साधन सुगम हैं। सार ठीक लिखा है। तो भी बहुत दुर्लभ है। मनुष्यपने में आत्मज्ञान की सम्यग्दर्शन की, अनुभव की बात सुनना दुर्लभ और प्राप्त करना मनुष्यपने में भी दुर्लभ है। समझ में आया? कितने ही तो रात-दिन शरीर की क्रिया में तल्लीन रहते हैं कि उन्हें आत्मा की बात सुनने का अवसर ही नहीं