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योगसार प्रवचन ( भाग - १ )
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मुमुक्षु - दो रास्ते हैं न ?
उत्तर - दो रास्ते ही नहीं, एक ही रास्ता है। आत्मा का आनन्दस्वरूप प्रभु का अतीन्द्रिय आनन्द(रूप होना, यह) एक ही (सड़क) अतीन्द्रिय पूर्णानन्द (की तरफ जाती है)। इस सड़क से जाकर पूर्णानन्द को पायेगा, दूसरी कोई सड़क- फड़क है नहीं; दूसरा कोई मार्ग - फार्ग व्यवहार बीच में आवे, वह मार्ग ही नहीं। बीच में आता अवश्य है - दया, दान, भक्ति, पूजा, व्रत के विकल्प (आते अवश्य हैं) परन्तु वह मार्ग नहीं है, वह मोक्षमहल में जाने की सड़क नहीं है; वह तो बन्ध में जाने की सड़क है । आहा... हा...! समझ में आया ? फिर इन्होंने ग्यारह प्रतिमाओं के नाम लिये हैं। ठीक है, ग्यारह प्रतिमायें होती हैं। फिर अन्त में पुरुषार्थसिद्ध्युपाय का थोड़ा लिया है।
सर्व पापबन्ध के कारणरूप मन, वचन, काया की प्रवृत्ति का त्याग करना, वह व्यवहारचारित्र है । सर्व कषाय की कालिमारहित, निर्मल, उदासीन, आत्मानुभवरूप निश्चयचारित्र है । आत्मारूप है न इसमें ? यह है न ? विशदमुदासीनमात्मरूपं है न ? यह, क्या कहते हैं ? पाप का त्याग करके शुभ में वर्तना, वह तो व्यवहारचारित्र है परन्तु पुण्य-पाप के विकल्प छोड़कर, कषायरहित होकर आत्मा के अन्तर में अनुभवरूप चारित्र, आत्मा के आनन्द का अनुभव करना चारित्र, वह निश्चयचारित्र । समझ में आया ?
हिंसा, असत्य, चोरी, कुशील, परिग्रह – इन पाँच पापों से पूर्ण विरक्त होना, वह साधु का व्यवहारचारित्र है और उपर्युक्त पाँच पापों से एकदेश विरक्त होना, वह श्रावक का व्यवहारचारित्र है । व्यवहारचारित्र है, इतना स्पष्टीकरण यह भी बकहर है, उनको नहीं जमता ।
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तत्त्वानी विरले होते हैं
विरला जाणहिं तत्तु बुह बिरला णिसुणहिं तत्तु ।
विरला झाहिं तत्तु जिय बिरला धारहिं तत्तु ॥ ६६ ॥