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गाथा-६५
देखो, भाषा! आत्मा के आनन्द का स्वाद जिस साधन (से होता है), वह मोक्ष का उपाय और वह आनन्द, सुख का साधन (है), वह आनन्द, सुख का साधन । आहा...हा...! समझ में आया? भगवान आत्मा.... जो आत्मिक आनन्द का स्वाद जिस साधन से... साधन अर्थात सम्यग्दर्शन-जान. वह स्वयं आनन्द है - ऐसा कहते हैं। समझ में आया? वही मोक्ष का उपाय अथवा अनन्त सुख का साधन है । वही आनन्द के सुख का (साधन है), पूर्ण आनन्द के सुख का, अतीन्द्रिय आनन्द का अनुभव, पूर्ण आनन्द के सुख का साधन (है)। अतीन्द्रिय आनन्द का वेदन (होता है) वह अतीन्द्रिय आनन्द, पूर्णानन्द का साधक है। राग-बाग, व्यवहार-फ्यावहार, निमित्त-फिमित्त, साधक-फादक है नहीं। कहो, इसमें समझ में आया? आहा...हा...!
क्योंकि स्वानुभव में सम्यग्दर्शन-ज्ञान और चारित्र - ये तीनों गर्भित हैं। स्वानुभव ही निश्चय रत्नत्रयस्वरूप मोक्षमार्ग है। आहा...हा...! ठीक लिखा है। स्वानुभव ही निश्चयसम्यग्दर्शन-ज्ञान और चारित्र है। राग के क्रियाकाण्ड में स्वानुभव है? वह निश्चयरत्नत्रय है – स्व-अनुभव। भगवान आत्मा स्वयं को अनुसरकर आनन्द से वेदन में आया, उसमें तीनों समाहित हो जाते हैं, कहते हैं । निश्चय – सत्य सम्यग्दर्शन, सत्य सम्यग्ज्ञान और सत्यचारित्र तीनों इसे आ गये। वह पढ़ा-गुना कम, उसे केवलज्ञान का मल (हाथ में) आ गया। समझ में आया? स्वानभव ही निश्चय मोक्षमार्ग है।
यही एक सीधी सड़क मोक्षमहल की तरफ गयी है। यह सड़क कहाँ जाएगी? चक्रवर्ती के महल में। यह सड़क कहाँ जाएगी? चक्रवर्ती के महल में। वैसे (ही) आनन्द के अनुभव की सड़क कहाँ जाएगी? सिद्धि के पूर्ण आनन्द में। आहा...हा... ! यही एक सीधी सड़क मोक्षमहल की तरफ गयी है।आ...हा... ! विकल्प-फिकल्प, व्यवहार -फ्यवहार का तो यहाँ भुक्का उड़ाया है। अप्पाणि वसेइ है न? जो आत्मा में बसा है, वही पूर्ण आत्मा में बसने का महल-सिद्ध, उसके सन्मुख यह सड़क गयी है – ऐसा कहते हैं। समझ में आया? कहो, दरबार! मुम्बई में तुमने ऐसा सुना नहीं होगा। पैसा... पैसा... पैसा... पूरे दिन, धूल... धूल... और धूल । यह तो कहते हैं, आनन्द... आनन्द... और आनन्द... आहा...हा... ! इसके अतिरिक्त कोई दूसरी सड़क नहीं है। दूसरी सड़क ही नहीं है।