________________
४६६
विरला जाने तत्त्व को, श्रवण करे अरु कोई । विरला ध्यावे तत्त्व को, विरला धारे कोई ॥
अन्वयार्थ - ( बिरला बुह तत्तु जाणहिं) विरले ही पण्डित आत्मतत्त्व को जानते हैं (विरला तत्तु णिसुणहिं) विरले ही श्रोता तत्त्व को सुनते हैं (विरला जिय तत्तु झायहिं ) विरले जीव ही तत्त्व को ध्याते हैं (विरला तत्तु धारहिं ) विरले ही तत्त्व को धारण करके स्वानुभवी होते हैं।
✰✰✰
गाथा - ६६
अब, ६६ में कहते हैं -
विरला जाणहिं तत्तु बुह बिरला णिसुणहिं तत्तु ।
विरला झाहिं तत्तु जिय बिरला धारहिं तत्तु ॥ ६६ ॥
विरले पण्डित ही आत्मतत्त्व को जानते हैं । कोई विरल ज्ञानी (ही) आत्मा के तत्त्व को जाननेवाले होते हैं, उन्हें पण्डित कहा जाता है । आहा... हा... ! समझ में आया ? विरला बुह तत्तु बुह अर्थात् पण्डित है न ? बुह पण्डित है न ? विरले ही बुह अर्थात् पण्डित आत्मतत्त्व को जानते हैं । भगवान आत्मतत्त्व निराकुल शान्तरस का पिण्ड प्रभु (है), उसे तो विरले पण्डित ही जानते हैं । वे विरले पण्डित अथवा विरल (ही) उसे जाने, वे पण्डित कहे जाते हैं। आत्मा का अनुभव (किया) और जाना, वह पण्डित है। आहा....हा...! लोकालोक का प्रकाश करनेवाला भगवान जिसके अनुभव में, ज्ञान में आया, कहते हैं कि वही बड़ा पण्डित है, परन्तु ऐसे जीव विरले होते हैं। समझ में आया ?
विरला तत्तु सुहि विरले (ही) तत्त्व को सुनते हैं । ऐसे तत्त्व की बात सुननेवाले भी विरल है। तत्त्व के समझनेवाले विरल... परन्तु समझनेवाले के पास ऐसे सुननेवाले विरल - ऐसा कहते हैं । आहा... हा... ! निर्विकल्प चैतन्यतत्त्व की दृष्टि- -ज्ञान और रमणता करो – यह बात सुननेवाले (विरल हैं) । व्यवहार के रसिया, पुण्य के रसिया, विकल्प के रसिया को यह बात सुनना मुश्किल पड़ती है, कहते हैं। समझ में आया ? विरले श्रोता ही तत्त्व को सुनते हैं। ऐसे श्रोता (मिलना) मुश्किल है, कहते हैं । तत्त्व