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योगसार प्रवचन (भाग-१)
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आत्मा अर्थात् अकेला अनन्त शुद्धभाव का भण्डार.... आत्मा अर्थात् अकेले अनन्त शुद्धभाव का भण्डार, यह भण्डार जिसने राग की एकता तोड़कर खोला है, कहते हैं कि उसके स्वभाव में वह जितना बसा है, वह स्वभाव में ही बसा है। रागादि होने पर भी उसमें उसका बसना नहीं है। उन्हें भी छोड़कर स्थिर होऊँ, स्थिर होऊँ – ऐसा उसे है। आहा...हा...! समझ में आया? परमार्थ से देखें तो एक न्याय से मुनि और गृहस्थ तो आत्मा में बसे हुए हैं। आहा...हा...! बात तो गम्भीर कहते हैं।
सम्यग्दृष्टि गृहस्थाश्रम में या आगे बढ़कर मुनि हुआ हो, दोनों व्यवहार से तो मुक्त हैं और बसे हैं स्वभाव में । आहा...हा...! समझ में आया? भले पाँच (में) व्यवहार आदि के शुभविकल्प विशेष हों, छठवें (गुणस्थान में) शुभ आदि के थोड़े हों, तथापि धर्मी का वास तो चैतन्य भगवान शुद्ध परमानन्द की मूर्ति है, वहाँ उसका बसना-आत्मा में बसना है। यह अनात्मा ऐसे पुण्य-पाप के भाव और उनके फल तथा उनके फल संयोग, यह इसमें रहा हुआ – बसा हुआ वह धर्मात्मा नहीं है। समझ में आया? प्रेम की प्रीति करके जिसमें पड़ा है, उसमें वह बसा है। इस पुण्य-पाप में प्रेम नहीं, रुचि नहीं, उसे जहररूप जानता है; इसलिए उनसे मुक्त है। अत: उनमें बसा है – ऐसा नहीं कहा जाता है। कहो, रतिभाई! आहा...हा...!
आत्मा में बसता है ऐसा कहा है न हैं ? अप्पाणि वसेइ शब्द है न? अप्पाणि वसेइ गृहस्थाश्रम में हो या मुनि हो, भगवान आत्मा अनन्त शुद्ध गुण सम्पन्न प्रभु, उसे जिसने दृष्टि में, ज्ञान में ज्ञेय करके बनाया है, उसमें जितने अंश में स्थिर हुआ, वह स्थिर होने का स्थान ही उसे मानता है। अर्थात् धर्मी को बसने का वास आत्मा ही है। आहा...हा...! पण्य-पाप का विकल्प आदि जो व्यवहाररत्नत्रय का विकल्प है. वह भी समकिती श्रावक या मुनि को बसने का वास-यह उसका घर नहीं है। समझ में आया? अन्तर्मुख प्रभु विराजमान है, स्वयं परमात्मस्वरूप विराजता है – ऐसा जहाँ अन्तर में वास – दृष्टि, ज्ञान लीनता हुई, कहते हैं कि वह आत्मा में ही बसता है। एक सिद्ध ऐसे किया।
दूसरा ऐसा कहते हैं कि गृहस्थाश्रम में आत्मा में बसना नहीं हो, उसका निषेध किया। समझ में आया? तीसरा कि उसका व्यवहार होता है, उसका वह स्वामी है, उसमें