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________________ ४५८ गाथा-६५ समझ में आया? मुनि को ही ऐसा हो सके – ऐसा नहीं है। मुनि उग्ररूप से बसते हैं। मुनि अर्थात् सच्चे, हाँ! सच्चे मुनि; वे उग्ररूप से आत्मा में बसते हैं; आत्मा में बसते हैं। आहा...हा...! समकिती ज्ञानी श्रावक हो, तो भी वह आत्मा में बसता है। एक न्याय क्या देते हैं? उसमें उसे अशुभ आदि राग होता है, तथापि उसका उसमें वास्तव में बसना नहीं होता। एक बात यह है । समझ में आया? सम्यग्दृष्टि को तीन कषाय है, श्रावक को दो कषाय, मुनि को एक (कषाय है) फिर भी निश्चय से तो वे आत्मा में ही बसे हुए हैं – ऐसा एक न्याय से कहते हैं। समझ में में आया? वह राग में बसता ही नहीं, दृष्टि ही नहीं - ऐसा कहते हैं। सम्यक् आत्मा का, शुद्ध चैतन्य का भान, निर्विकल्प वेदन हुआ और थोड़ी शुद्धि बड़ी तथा उससे शुद्धि बड़ी मुनि को, परन्तु इन सबका वास्तव में तो आत्मा में ही बसना है। रागादि बाकी हैं, वे तो ज्ञान में जाननेयोग्य वस्तु है। आहा...हा...! समझ में आया? अपने आत्मा में वास करते हैं, वे शीघ्र ही सिद्धि का सुख पाते हैं। ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है। समझ में आया? उसका श्लोक भी है ? गुजराती क्या किया है अन्दर? 'मुनिजन के कोई ग्रही जो होय आतमलीन' – देखो! गृहस्थाश्रम में भी पुण्य-पाप के विकल्प होने पर भी, उनसे भगवान आत्मा को ज्ञानस्वरूप से अधिक अनुभव करके और विकार से भिन्न करके, निर्विकल्पस्वभाव में एकत्व होकर उसमें बसते हैं, वे अल्पकाल में मुक्ति के सुख को पाते हैं। वे गृहस्थ में हो या मुनिपने में; दोनों आत्मा में बसे हुए मुक्तिपने को पाते हैं - ऐसा सिद्ध करते हैं। समझ में आया? एक तो ऐसा कहा कि गृहस्थाश्रम हो या मुनि-आश्रम हो, त्याग-आश्रम, परन्तु भगवान आत्मा का शुद्ध श्रद्धा-ज्ञान और रमणता का भाव प्रगट गृहस्थाश्रम में भी होता है। इससे वह आत्मा में बसता है। मुनि को विशेष उग्रतारूप से पुरुषार्थ है तो वे आत्मा में बसते हैं। दूसरा, ये दोनों – गृहस्थ या मुनि को रागादि बाकी हैं, उसमें उनकी खास दृष्टि नहीं है, इसलिए वहाँ वास्तव में नहीं रहते हैं, वास्तव में वे रहे ही नहीं। आहा...हा...! इसमें समझ में आया?
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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