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गाथा-६४
यह ईश्वर तो उसे कहते हैं, भगवान आत्मा शान्तरस का भण्डार अन्दर पड़ा है, शान्ति से... शान्ति से... शान्ति से.... शान्ति का वेदन करे, आहा...हा...! एक तरफ कौने में बैठकर, किसी को पता नहीं पड़े – ऐसा आत्मा का अन्दर शुद्ध चिदानन्दस्वरूप की अन्तर दृष्टि करके साधन करे, वह परम ऐश्वर्यवान है, वह बड़ा ऐश्वर्यवान है, वह बड़ा अधिक है। आहा...हा... ! पुण्य बड़ा अधिक करे और पुण्य का बड़ा फल बाहर में मिले, वह बड़ा नहीं है। आहा...हा...!
रत्नत्रय से अपर्व सम्पत्ति का स्वामी है.... एक शब्द डाला है। भगवान आत्मा पूर्ण शुद्धभाव का भण्डार, उसकी अन्तर में अनुभवपूर्वक प्रतीति और उसमें रमणता (होना), वह सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र रत्नत्रय का वह स्वामी है, वह इस रत्नत्रय का स्वामी है। आहा...हा...! समझ में आया? पुण्य का मालिक और धूल का मालिक और.... सब भटकने का मालिक है – ऐसा कहते हैं।
मुमुक्षु - अभी तो सुख लगता है। उत्तर – कहाँ सुख था? धूल में। सब होली सुलगती है। मुमुक्षु - किसी को छोटी होली हो....
उत्तर – दूसरे को बड़ी होती है। बड़े पैसेवाले को बड़ी होती है। हर्ष आवे नहीं यह करना है और यह करना है और यह कहना है.... पाँच लाख यहाँ डालना है, दस लाख यहाँ डालना है, पच्चीस लाख यहाँ डालना है, पाँच करोड़-दस करोड़ डालना कहाँ? कहो? एक फिल्म में डालना, फिर उसमें घोड़ा डालना, फिर थोड़ा मकान बनाना, फिर थोड़ा दीवार चिनाने में डालना।
मुमुक्षु - अब पैसेवालों को करना क्या?
उत्तर – पैसेवाले को ममता छोड़ना। (आत्मा) पैसेवाला था कब? पैसे इसके पिता के हैं ? इसके हैं ? वह तो धूल के हैं। यह तो चैतन्य लक्ष्मीवाला आत्मा है।
अन्दर केवलज्ञान-महाभण्डार पड़ा है। उसे अनुभवे, वह तीन रत्न का स्वामी है। यह अपूर्व रत्न, देखो ! रत्नत्रय की अपूर्व सम्पदा का स्वामी सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र