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योगसार प्रवचन (भाग-१)
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ओ...हो...हो...! तुमने बहुत अच्छा किया... कि नहीं, वह प्रशंसनीय है ही नहीं। कठिन बात भाई वीतरागमार्ग की! ऐ... रतिभाई ! है ? अब तो बना दिया है, कहते हैं।
मुमुक्षु - एक धर्मशाला बाकी है।
उत्तर – वह भी होने आयी है। कौन जाने.... वहाँ तो सब गृहस्थ लोग हैं, यहाँ तो मानस्तम्भ बनाया, समवसरण बनाया, मन्दिर बनाया, हॉल बनाया, अब धर्मशाला (बनायी)। अभी यहाँ आये थे न? दीपचन्दजी – तुम्हारे यहाँ आये थे, प्रसन्न हो गये। राजकोट के सेठ हैं, उन्होंने (दान में) एक लाख रुपये निकाले हैं, मानस्तम्भ के लिए... धूल में लाख निकाले, उसमें क्या हो गया....? दो लड़कों के लिए कैसे पचास लाख-पचास लाख (निकालकर) दो भाग कर देते हैं? ऐ... मलूकचन्दभाई! कहो समझ में आया? आहा...हा...!
भाई! यहाँ तो कहते हैं, जहाँ आत्मा के स्वभाव में भी स्थिर न रह सके और धर्म प्रचार का विकल्प आता है, वह भी बन्ध का कारण है। आत्मा को लाभदायक नहीं है। आहा...हा...! ऐसा वीतरागमार्ग है। विकल्परहित निर्विकल्प चैतन्य का साधन, यह स्वयं कर सकता है, इसमें किसी बाह्य पढ़ाई की आवश्यकता नहीं है और बाहरवालों को पढ़ाने की आवश्यकता नहीं है तथा दूसरों से पढ़ने की भी इसमें आवश्यकता नहीं है। ऐ... निहालभाई! आहा...हा...!
वही महाविवेकी पण्डित है.... लो! जो कोई आत्मा आनन्दस्वरूप आत्मा, सच्चिदानन्द प्रभु है, सत्, शाश्वत् आनन्द अतीन्द्रिय है, उसे जो अन्दर में एकाग्र होकर निर्विकल्परूप से वेदन करे, उसे विवेकी पण्डित, बड़ा विवेकी पण्डित है। समझ में आया? वही परम ऐश्वर्यवान है.... आहा...हा...! लो रतिभाई! यह सब पैसेवाले बड़े ऐश्वर्यवान् ऐसा नहीं। बड़ी पचास-पचास हजार, लाख-लाख, दो-दो लाख की बड़ी पदवी मिली हो, बारह महीने में पाँच लाख आमदनी करता है, दस लाख कमाता है, क्या हुआ ईश्वर....? यह तो....
मुमुक्षु – यह पैसे का ईश्वर, यह आत्मा का ईश्वर।
उत्तर – पैसे का ईश्वर कब था? मूढ़ है, जड़ का ईश्वर कोई होगा? अभिमान करे, वह अभिमान करता है। हम पैसेवाले हैं, पैसेवाले हैं, धूलवाले हैं।