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गाथा - ६४
उत्तर - अभी.... कब क्या ? समझ में आया ? ऐ... रतिभाई ! यह पैसे बढ़ाने का विकल्प तो छोड़ दे परन्तु धर्म प्रचार का विकल्प छोड़ दे - ऐसा कहते हैं। ठीक ! आत्मा को.... नित्य प्रभु आत्मा, ध्रुव अनादि - अनन्त आत्मस्वरूप के साधन में जुड़ने से धर्म प्रचार का विकल्प भी जिसे नहीं होता क्योंकि उस विकल्प से पुण्य बँधता है, आत्मा को कुछ लाभ नहीं है। दूसरा समझे तो उससे उसे कुछ लाभ है, इसका लाभ वहाँ नहीं होता है । आहा...हा... ! दूसरे थोड़ा धर्म पावें तो इसका कुछ ब्याज मिलता होगा या नहीं, धर्म प्राप्त करानेवाले को ? पर (जीव) समझें वे तो उनके कारण से समझते हैं । उसमें इसका लाभ यहाँ कहाँ से आया ? स्वयं अपना शुद्धस्वरूप में जितनी दृष्टि और एकाग्रता करे, उसका लाभ इसे है, बाकी कुछ है नहीं । आहा... हा... ! कहो, ज्ञानचन्दजी ! यह तो कहते हैं (क) धर्म प्रचार का विकल्प भी बंध का कारण है। वीतरागस्वरूप परमात्मा आत्मा है, शुद्ध चिदानन्द महाराजा आत्मा है । उसके अन्तर साधन में इस विकल्प का क्या काम है ? कहते हैं। समझ में आया ?
समझ
सात तत्त्व है, नौ पदार्थ है - इत्यादि सर्व विकल्पों को बंध करनेवाला जानकार छोड़ देता है। थोड़ा-थोड़ा अर्थ लेते हैं (दूसरा) तो लम्बा बहुत किया है। में में आया ? इस प्रकार जो ज्ञानी और विरक्त पुरुष संसार के सर्व प्रपंचों से पूर्ण विरक्त होकर आत्मध्यान करता है .... अपने आत्मा का... दुनिया, दुनिया के घर रही। कहो, समझ में आया ? दुनिया समझे तो उसे लाभ, न समझे तो उसे नुकसान । यह आत्मा समझे तो यहाँ थोड़ा-बहुत मिले - ऐसा है नहीं। ऐसा होगा या नहीं ? रतिभाई ! मुमुक्षु - अभी तक मिलता था।
उत्तर – अभी तक मिलता था, कहते हैं। दूसरे में से कुछ मिलता होगा या नहीं ? धूल भी नहीं मिलता। कदाचित् ऐसा विकल्प होवे तो अन्दर पुण्य बँधे परन्तु वह तो बँधता है न ? उसमें अबन्धपरिणाम कहाँ आये ? आहा... हा... ! समझ में आया ?
परमानन्द के अमृत का पान करता है .... धर्मात्मा अकेला आत्मा में परम आनन्दस्वरूप को पीता है, अन्तर सुधारस को पीता है, उसे यहाँ धन्य कहा जाता है । वह प्रशंसनीय है। समझ में आया ? धर्म प्रचार का विकल्प है, इसलिए वह प्रशंसनीय है,