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योगसार प्रवचन (भाग-१)
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चक्रवर्ती, कामदेव, इन्द्र, धरणेन्द्र, अहमिन्द्र आदि पदों को कर्मजनित नाशवन्त आत्मा के शुद्धस्वरूप से बाह्य जानकर उन सबकी महिमा छोड़ता है.... भगवान आत्मा, अपना परमानन्दस्वभाव अनादि-अनन्त पड़ा है, उसे साधते हुए बड़ी पदवियों की ममता भी छोड़ देता है। आत्मपद निजानन्द का पद, उसे साधते हुए वासुदेव, बलदेव आदि इन्द्रपद को भी नहीं गिनता है, कहो समझ में आया?
इसी प्रकार जिन शुभभावों से लौकिक उच्च पदों की प्राप्ति योग्य पुण्य का बंध होता है... लौकिक में सेठपना मिले या बड़े-बड़े पद मिलें। पचास-पचास हजार का वेतन मिले उन्हें भी नहीं चाहता। दुनिया की लौकिक बड़ी पदवी भी वह नहीं चाहता। लोकोत्तर चैतन्य भगवान आत्मा की रुचिवाला, वह अपने निजपद की पूर्णता के पद को चाहता है, दूसरी चाहना धर्मी को नहीं होती है। आहा...हा...!
धर्मानुराग, पंच परमेष्ठी की भक्ति.... पंच परमेष्ठी की भक्ति अनुकम्पा, परोपकार, शास्त्र पठन आदि शुभभावों में वर्तता है.... इन शुभभावों में वर्तता है, फिर भी उनका आदर नहीं करता। क्योंकि शुद्धोपयोग में अधिक नहीं स्थिर हो सकता। शुद्ध में स्थिर नहीं हो सकता, इसलिए ऐसे शुभभाव में आता है, तथापि उसके फल का और उसके भाव का वह आदर नहीं करता है। कहो, समझ में आया?
एक शुद्धोपयोग को ग्रहण करने का उत्सुक होकर धर्म प्रचार के विचार भी छोड़ता है। क्या कहते हैं ? भगवान आत्मा शुद्ध पूर्णानन्द का नाथ प्रभु को अन्तर्मुख में साधन की उग्रता साधते हुए जो धर्म प्रचार का विचार भी रोक देता है। धर्म प्रचार का विकल्प भी आत्मा को क्या लाभ करता है? कहो, छगनभाई! क्या कहा? धर्म प्रचार होवे ऐसे विकल्प से आत्मा को क्या लाभ है ?
मुमुक्षु - धर्म प्रचार का विकल्प करे तो सुखी होता है।
उत्तर – कौन होता है ? यह धर्म करे तो इसे हो, इसमें उसे क्या? विकल्प उठता है – ऐसा कहते हैं। धर्म प्रचार का भी विकल्प है, वह विकल्प भी छोड़ने योग्य है।
मुमुक्षु - कब?