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________________ ४५० गाथा - ६४ — अन्दर में भगवान आत्मा सच्चिदानन्द की लक्ष्मी सम्पन्न प्रभु ( है ) । आत्मा में शुद्ध आनन्द, ज्ञानादि लक्ष्मी पड़ी है, उसमें अन्तर योग अर्थात् जुड़ान करके शुद्धता के निर्मल भाव प्रगट करे, उसे लक्ष्मी और उसे धन्य कहा जाता है । कहो, समझ में आया ? यहाँ आया न ? ‘धण्णा ते भयवंत बुह जे परभाव चयंति' वह ज्ञानी धन्य है कि जो परभाव अर्थात् पुण्य-पाप का विकार - मैल है, उसे छोड़ता है और 'लोयालोय -पयासयरु अप्पा' आत्मा कैसा है ? कि लोकालोक का प्रकाशक है। यहाँ तो आत्मा की व्याख्या ही ऐसी की है। भगवान आत्मा, लोक- चौदह ब्रह्माण्ड और अलोक -खाली, उसका वह प्रकाशक है। ऐसे प्रकाशक आत्मा को निर्मलरूप से निर्मल अनुभव करता है। भगवान आत्मा निर्मल है, शुद्ध है, पवित्र है - ऐसा जो अन्तर में स्वभावसन्मुख होकर; विभावविमुख होकर आत्मा का अनुभव करता है, उसे यहाँ धन्य कहा जाता है। कहो, समझ में आया इसमें ? भावार्थ में है आत्मा का स्वरूप निश्चय से परम शुद्ध है, ज्ञान उसका मुख्य असाधारण लक्षण है। लोकालोक प्रकाशक कहा है न ? ज्ञान, यह तो इसका लोकालोक प्रकाश का इसका मुख्य लक्षण है, यह ज्ञान असाधारण लक्षण है, लो ! समझ में आया ? ज्ञान में शक्ति है कि एक समय में सर्व लोक - तीन काल-तीन लोक जान सके- ऐसा भगवान आत्मा में असाधारण, दूसरों में न हो ऐसा; दूसरों में न हो और दूसरे गुणों में न हो ऐसा – ऐसा आत्मा का ज्ञानस्वभाव, उसे अन्तर में अनुभव करे, उसमें एकाकार होकर आनन्दसहित उस ज्ञान का अनुभव करे, उसे धन्य कहा जाता है । वह प्रशंसनीय है, वह हितकर साधन करता है, सन्तों को भी वह प्रशंस अर्थात् सम्मत होता है - ऐसा कहते हैं । स्वभाव से आत्मा सिद्ध समान है । तत्त्वज्ञानी महात्मा जो पद प्राप्त करने की रुचि धरते हैं, उसी पद का ध्यान करते हैं। भगवान आत्मा अपने शुद्धस्वरूप को रुचि से साधता है, तो वह उसकी रुचिवाला हो जाता है। तब वह समस्त परपदार्थों से विरक्त हो जाता है। भगवान आत्मा की आनन्द की परम सम्पत्ति साधते हुए जगत् के दूसरे पदार्थों के प्रति उसे उदासीनता - वैराग्य हो जाता है। पुण्योदय से प्राप्त होनेवाले...... कदाचित् पुण्य के कारण से नारायण.... वासुदेव की पदवी बलभद्र, प्रतिनारायण,
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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