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________________ ४४६ गाथा-६४ अन्वयार्थ – (जे परभाव चयंति) जो परभावों का त्याग करते हैं और (लोयालोय पयासयरू अप्पा मुणंति) लोकालोक प्रकाशक निर्मल अपने आत्मा का अनुभव करते हैं (ते भवयंत बुह धण्णा ) वे भगवान ज्ञानी महात्मा धन्य हैं। ६४, त्यागी आत्मध्यानी महात्मा ही धन्य हैं। अब योगीन्द्रदेव स्वयं प्रमोद में आते हैं। आहा...हा...! धण्णा ते भवयंत बुह जे परभाव चयंति। लोयालोय-पयासय अप्पा विमल मुणंति ॥ ६४॥ एक तो पहले आत्मा को लोकालोक का जाननेवाला सिद्ध किया। समझ में आया? लोकालोक को प्रकाशे – ऐसा नहीं। 'लोयालोय-पयासय अप्पा विमल मुणंति' समझ में आया? लोकालोक का प्रकाश करनेवाला। यह सूर्य प्रकाशित करता है... सूर्य बहुत पदार्थों को प्रकाशित करता है, यह (ज्ञान) सूर्य, इस सूर्य और दूसरे सब पदार्थों को प्रकाशित करता है। लोकालोक प्रकाशक 'अप्पा विमल मुणंति' लोकालोक प्रकाशक... प्रकाशक ऐसा शब्द है, हाँ! यह आत्मा, यह सब प्रकाश हैं, सूर्य है वह प्रकाश है और वह सूर्य इन सबको प्रकाशित करता है कि यह सब है, इन सबको प्रकाशित करनेवाला सूर्य और उसे प्रकाशित करनेवाला प्रकाश है। अर्थात् लोकालोक को प्रकाशित करनेवाला आत्मा है – ऐसा कहते हैं। यह सूर्य तो कितने को प्रकाशित करेगा? समझ में आया? अर्धभाग को (प्रकाशित करता है)। दो सूर्य होकर आते हैं न? ___कहते हैं, यह 'लोयालोय-पयासय' समझ में आया? पहले तो आत्मा को सिद्ध किया कि आत्मा अर्थात् क्या? लोकालोक का प्रकाश करनेवाला आत्मा... लोकालोक का प्रकाश करनेवाला, वह आत्मा। किसी चीज को करनेवाला नहीं, किसी को छोड़नेवाला नहीं, किसी को ग्रहण करनेवाला नहीं। आहा...हा...! एक राग को ग्रहण करना या छोड़ना, वह उसके स्वरूप में नहीं है। रजकण को ग्रहण करना (नहीं) वह तो लोकालोक सब है, उसका प्रकाशक है। आहा...हा...! समझ में आया?
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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