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योगसार प्रवचन (भाग-१)
४४५ इसके बाद समयसार का श्लोक दिया है। शुद्धभाव में चलनेवाले मोक्षार्थी महात्माओं को इसी सिद्धान्त का सेवन करना चाहिए कि मैं सदा ही एक शुद्ध चैतन्यमय परम ज्योतिस्वरूपहूँ। यह इसका सार है। मैं तो एक शुद्ध परम चैतन्य ज्योति हूँ। सम्यग्दृष्टि धर्मी जीव स्वयं को शुद्ध चैतन्यमय, ज्योतिमय मानता है। मैं विकल्पवाला
और शरीरवाला यह तो ज्ञान करने के लिए दूसरी चीज रह गयी, आदर करने के लिए तो यह एक ही चीज है। ए... मोहनभाई! इस पैसे में सुख (नहीं होगा)? कहते हैं कि वे पैसे कितने? थैलियाँ देखकर उसे उस दिन कितना सुख होगा? बरामदे में रुपये की थैलियाँ ! धूल में सुख था? सब आकुलता थी। ओहो...हो... ! देखता नहीं नजर डालकर, पत्थर
और चाँदी के लक्ष्य से देखता है कि यह सब चाँदी के पाट पड़े हैं। देखता है न उन्हें ? उस समय रुपये देखना है या नहीं? कि यहाँ आ जाते हैं ? केवलज्ञानी देखते हैं, तीन लोकतीन काल के रुपये, स्वर्ण मोहर सब देखते हैं। भगवान के ज्ञान में सब आता है। आहा...हा...! ऐसा चैतन्य रत्नाकर, जिसमें अनन्त रत्न पड़े हों, अब यह तो कब धूल के कंकर कितने हों, संख्यात हों, हैं खरब निखरब.... पहले बड़ा-बड़ा आता था न? प्रारब्ध
अन्तिम... क्या कहलाता है ? परार्ध खरब, निखरब, अन्तिम, मध्यम परार्ध ऐसा आता था। पहले शब्द आते थे, पाठशाला में पढ़ते तब। लो, उसका आँकड़ा बड़ा वहाँ तक आया।
यहाँ तो भगवान के अन्दर में तो अनन्त-अनन्त शुद्ध रत्नाकर का समुद्र प्रभु आत्मा है। एक समय का विकार-संसार का लक्ष्य छोड़ दे। भगवान पूर्णानन्द का नाथ का अनुभव करे तो तुझे क्या फल नहीं मिलेगा? समझ में आया? अल्प काल में सिद्ध होकर मुक्ति को प्राप्त करेगा।
त्यागी आत्मध्यानी महात्मा ही धन्य हैं धण्णा ते भवयंत बुह जे परभाव चयंति। लोयालोय-पयासय अप्पा विमल मुणंति॥६४॥
धन्य अहो! भगवन्त बुध, जो त्यागे परभाव। लोकालोक प्रकाश कर, जाने विमल स्वभाव॥