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योगसार प्रवचन (भाग-१)
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करने से उसे पहले तो अतीन्द्रिय आनन्द का वेदन होता है। पहला फल तो अतीन्द्रिय आनन्द प्रगट होता है। कहो, समझ में आया? अतीन्द्रिय आनन्द का वेदन... स्वयं अतीन्द्रिय आनन्द नित्यानन्दस्वरूप वस्तु है, उसे अन्तर की निर्मल-विकाररहित दशा द्वारा उसे आत्मा की सन्मुखता की दृष्टि से अनुभव करने पर पहले तो अतीन्द्रिय आनन्द का वेदन होता है। आत्मा के अनुभव का पहला फल आनन्द है । हैं ?
मुमुक्षु – उससे बाहर में सुख का ढेर होता है?
उत्तर – बाहर में सुख का ढेर था कब? धूल में... सुख का ढेर तो यह स्वयं है, अतीन्द्रिय आनन्द का ढेर, ढेर। समझें न? ढेर को क्या कहते हैं ? ढेर... अतीन्द्रिय आनन्द का ढेर आत्मा है । अतीन्द्रिय आनन्द का रसकन्दकुंज है, अतीन्द्रिय आनन्द, सिद्ध को जो आनन्द है ऐसे ही अतीन्द्रिय आनन्द का पुंज आत्मा है।
यहाँ तो सीधी बात है न! योगीन्द्रदेव योगसार (कहते हैं)। योगीन्द्रदेव हैं न? तो योगसार (कहा) स्वयं का नाम योगीन्द्र है। योगीन्द्रदेव का यह योगसार है – ऐसा। धर्मी आत्मा सम्यग्दर्शन से लेकर अपने चैतन्यशुद्ध आनन्द के अन्तर्मुख का अनुभव करने पर उसे क्या फल नहीं होता? तो कहते हैं कि पहले तो उसे आनन्द का फल होता है। समझ में आया? वह अतीन्द्रिय सुख अरहन्त और सिद्ध परमात्मा के सुख की जाति का है। लो, जो अरहन्त सिद्ध परमात्मा को अतीन्द्रिय आनन्द है, ऐसा ही अतीन्द्रिय (आनन्द) धर्मी को (आताा है)। आत्मा के अतीन्द्रिय आनन्दस्वरूप को सम्यग्दर्शन-ज्ञान द्वारा अनुभव करने पर उसे प्रथम आनन्द का ही अनुभव होता है। सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र.... सम्यग्दर्शन ज्ञान और स्वरूपाचरण - ये तीनों पहले होते हैं। समझ में आया? सम्यग्दर्शन-ज्ञान और चारित्र, आत्मा का अनुभव होने पर ये तीनों पहले होते हैं । अद्भुत बात भाई!
वस्तु अन्दर चैतन्य महाप्रभु, उसकी महान प्रभुता के निर्विकार द्वारा उसे प्रथम सम्यग्दर्शन-ज्ञान स्वरूपाचरण द्वारा अनुभव करते हुए उस सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र में उसे आनन्द की दशा का अनुभव होता है। समझ में आया? कि जो आनन्द अरहन्त और सिद्ध को पूर्ण आनन्द है, उसी में का अतीन्द्रिय आनन्द के अनुभव का नमूना प्रगट होता