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गाथा - ६२
है । आहा...हा... ! समझ में आया ? सम्यग्दृष्टि जीव को आत्मा के अनुभव से जो आनन्द होता है, वह अरहन्त और सिद्ध की आनन्द की जाति का आनन्द है । आहा... हा... ! और उस आनन्द के समक्ष इन्द्र के इन्द्रासन को भी सड़ा हुआ तिनका जैसा दिखता है। समझ में आया? छियानवें हजार स्त्रियाँ हों, राजपाट, ऐसे बत्तीस हजार मुकुटबद्ध राजा, खम्भा, अन्नदाता (कहते हों) खम्भा... खम्भा की पुकार ऐसे करोड़ों अरबों में (होती हो), वह नहीं वे... नहीं... वह आनन्द मेरा मेरे पास है । उस आनन्द की गन्ध कहीं होती ।
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धर्मी जीव को गृहस्थाश्रम में भी.... यह बाद में आगे कहेंगे। गृहस्थाश्रम और मुनि दोनों आत्मा में बसते हैं। आगे ६५ वीं गाथा में कहेंगे, ६५ में । गृहस्थाश्रम में समकिती हो या मुनि होकर आत्मज्ञानी मुनि हो, दोनों को शुरुआत होने पर आत्मा के आनन्द का वेदन (होता है) क्योंकि समस्त शक्तियों की व्यक्तता पहले ही अनुभव काल में उन्हें प्रगट होती है
। समझ में आया ? ' उवगोऊ' आता है न ? निर्जरा अधिकार में । 'उवगोऊ सर्वधर्माणं' सर्व धर्म का अर्थ ही किया है, सर्व गुणों की शक्तियों का बढ़ना । एक सिद्धान्त ही वहाँ बस है। भगवान आत्मा अनन्त... अननत... बेहद संख्या से गुणों का समूह है। बेहद अनन्तगुण का संख्या से समूह है। उसके गुण के भाव की अचिन्त्यता अपरिमितता तो अपार है परन्तु उसकी गुण की संख्या है, (वह भी) अनन्त अचिन्त्य अपार है । इतने अनन्त गुणों का धारक समुद्र भगवान, का अन्तर सम्यग्दर्शन आदि से अनुभव होने पर...... अनुभव होने पर उन अनन्त गुणों की शक्ति की वृद्धि, शक्ति में से पर्याय में व्यक्ति, अनन्त पर्याय की शुद्धि की वृद्धि सम्यग्दर्शन होने पर समय-समय होती है । आहा... हा...! समझ में आया ?
सम्पूर्ण आत्मा पूर्ण जहाँ अनन्त परमात्मा जिसके गर्भ में, ध्रुव में, पेट में बसते हैं । ऐसे परमात्मा, ऐसा परमात्मस्वरूप भगवान आत्मा को अन्तर्मुख, अन्तर्मुख ऐसी दृष्टि और ज्ञान द्वारा अन्तर का वेदन और अनुभव (करने पर) क्या फल नहीं होगा ? कहते हैं । ओ...हो...हो... ! अनन्त गुणों की शक्ति का सत्व, उसका अनुभव करने पर एक समय में अनन्त शक्ति की व्यक्तता का अंश उस काल में प्रगट होता है । उसमें आनन्द का मुख्यपना है। समझ में आया ? हैं ?
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