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वीर संवत २४९२, आषाढ़ शुक्ल १३,
गाथा ६२ से ६४
गुरुवार, दिनाङ्क ३०-०६-१९६६ प्रवचन नं. २२
६२ वीं गाथा -
अप्पाइँ अप्प मुणंतयहँ किं णेहा फलु होइ। केवल-णाणु वि परिणवइ सासय-सुक्ख लहेइ॥६२॥
बहुत सार में सार बात है। योगसार है न? आत्मा को आत्मा के द्वारा.... पाठ में ऐसा शब्द है। अप्पई अप्पु' - ऐसा है । आत्मा को.... आत्मा कौन है, उसे पहले इसे जानना चाहिए न? आत्मा ज्ञान, आनन्द का रूप, वह आत्मा है। उसमें पुण्य-पाप का विकार, शरीर, कर्म – वह आत्मा नहीं है।
मुमुक्षु – एकान्त नहीं हो जाता?
उत्तर - एकान्त ही है। आत्मा में विकार बिल्कुल नहीं। वस्तु में विकार है? द्रव्य में; वस्तु-आत्मा जिसे कहते हैं, (उसमें विकार नहीं है।) वह विकार तो आस्रवतत्त्व है; कर्म, अजीवतत्त्व है; शरीर, अजीवतत्त्व है; वरना नौ तत्त्व सिद्ध किस प्रकार होंगे? आस्रव है, वह पुण्य-पाप के विकार, व्यवहार, त्रिकाल-स्वभाव की अपेक्षा से, वह वस्तु में नहीं है तो इस वस्तु में क्या है ? ज्ञान, आनन्द, शान्ति, स्वच्छता, प्रभुता आदि अनन्त शुद्ध गुण है। ऐसे आत्मा को आत्मा द्वारा.... है न? अप्पई अप्पु आत्मा को आत्मा द्वारा.... भावार्थ में भी यह कहा है, देखो! आत्मा के द्वारा आत्मा का अनुभव करना, वह मोक्षमार्ग है। उसे ही मोक्षमार्ग कहते हैं; उसे कहते हैं और वह है।
आत्मा चैतन्यस्वरूप (है), पुण्य-पाप के राग से सर्वथा निराला है – ऐसा आत्मा अन्तर स्वरूप में उसे दृष्टि में लेकर आत्मा का आत्मा के द्वारा अनुभव करना अर्थात्