________________
४२८
गाथा-६२
अन्वयार्थ - (अप्पइँ अप्पु मुणंतयहँ) आत्मा को आत्मा के द्वारा अनुभव करते हुए ( किंणेहा फलु होउ) कौन सा फल है जो नहीं मिलता है? और तो क्या ( केवलणाणु वि परिणवइ) केवलज्ञान का प्रकाश हो जाता है ( सासय-सुक्ख लहेइ) तब अविनाशी सुख को पा लेता है।
आत्मानुभव का फल केवलज्ञान व अविनाशी सुख है।लो, यह भगवान आत्मा के अनुभव का फल ! महान चैतन्य भगवान... राग और विकार के अनुभव का फल चार गति का दुःख.... राग – पुण्य-पाप, विकारभाव, उपाधिभाव, विभावभाव के अनुभव का फल चार गति का दुःख है। चार गति का दुःख, हाँ! स्वर्ग भी दुःख है । आत्मानुभव का फल केवलज्ञान और आनन्द दो लिये। ज्ञान और आनन्द मुख्य तो दो ही लेना है न?
अप्पाइँ अप्प मुणंतयहँ किं णेहा फलु होइ। केवल-णाणु वि परिणवइ सासय-सुक्ख लहेइ॥६२॥
क्या फल नहीं होगा? ऐसा कहते हैं । आत्मा, आत्मा को अनुभव करने पर कैसे फल नहीं होगा? आहा...हा...! महान प्रभु आत्मा का अन्तर में अनुभव करने पर, आत्मा को शान्तभाव से वेदन-अनुभव करने पर उसका क्या फल नहीं होगा? उसे क्या फल नहीं होगा? स्वर्गादि तो बीच में साधारण हैं परन्तु जिसका केवलज्ञान फल है।
'केवल-णाणु वि परिणवइ' भगवान आत्मा ज्ञानस्वरूप, आनन्दस्वरूप (है) - ऐसे आत्मा का अनुभव अर्थात् उसकी दृष्टि और ज्ञान में रमणता करे तो केवलज्ञानरूप परिणमित हो जाये – ऐसा कहते हैं। परिणमित हो जाये – ऐसा कहा है न? केवलज्ञानरूप हो जाये, आत्मा का अनुभव करने से आत्मा सर्वज्ञ शक्तिवाला है तो पर्याय में सर्वज्ञ परिणतिरूप हो जाता है। अवस्था में सर्वज्ञ केवलज्ञानरूप की अवस्था हो जाती है। 'सासय-सुक्ख लहेइ' लो! साथ में शाश्वत् नित्य अविनाशी कायम टिके – ऐसे सुख को पाता है। ज्ञान को परिणमे और साथ में सुख को भी प्राप्त करे, यह आत्मा के अनुभव का फल है - ऐसा महा अनुभव, आत्मा का महा-मोक्ष का मार्ग है, उसका फल केवलज्ञान और अनन्त आनन्द है।
(श्रोता : प्रमाण वचन गुरुदेव!)