________________
योगसार प्रवचन (भाग-१)
४२७
में आया? सम्यग्दर्शन में अन्तर्मुख की प्राप्ति हुई; इसलिए उसे निश्चिन्त होकर जब चाहे तब आत्मा का ध्यान कर सकता है। आत्मा को पकड़ा है कि यह आत्मा। शुद्ध चैतन्य अनुभव में आ गया है, जब सन्मुखता करना चाहे, तब सन्मुखता करके आत्मा का अनुभव कर सकता है।
उसे अपनापन अपने ही आत्मा में रहता है.... चारित्रमोह के उदय से रोगी समान कड़वी दवा पीता हो, वैसे लाचार होकर विषयभोग करता है.... लाचार होकर कड़वी दवा जैसे पीना पड़े, वैसे समकिती को विषय के विकल्प में जुड़ना पड़ता है। कड़वी दवा पीता हो, महा कड़वी... मुँह ऐसा (कड़वा) हो जाये। समझ में आया? ऐसा मुँह अन्दर में से बदल जाये, कहते हैं । आहा...हा... ! भोग की वासना जहर जैसी लगती है। समझे न? कड़वी दवा जैसी लगती है। परन्तु भावना उसके त्याग की ही रहती है। यह कब छूटे? कब छूटे पुरुषार्थ से? ऐसी भावना रखता है। कहो, समझ में आया?
दृष्टि में ग्रहण योग्य एक निज स्वरूप ही रहता है, सम्यग्दर्शन का धारक ही आत्मा का दर्शन अन्दर कर सकता है। लो, अज्ञानी बारम्बार राग और पर का दर्शन किया करता है, पर को ही देखता है – ऐसा कहते हैं । मिथ्यादृष्टि राग को, विकार को, शरीर को, उसकी अनुकूलता बाहर में पर्याय की ही देखा करता है। सम्यग्दृष्टि (को) आत्मा को प्रतीति (हुई है), शुद्ध चिदानन्दस्वरूप दृष्टि में, अनुभव में आया - ऐसा ही आत्मा बारम्बार अनुभव में लेता है। ऐसी दृष्टि उसकी होती है। कहो, समझ में आया? इसके बाद एक दृष्टान्त दिया है।
आत्मानुभव का फल केवलज्ञान व अविनाशी सुख है अप्पाइँ अप्प मुणतयहँ किं णेहा फलु होइ। केवल-णाणु वि परिणवइ सासय-सुक्ख लहेइ॥६२॥
निज को निज से जानकर, क्या फल प्राप्ति न पाय। प्रगट केवलज्ञान औ, शाश्वत सौख्य लहाय॥