________________
४२४
गाथा-६१
देह और देह के सुख का अभिनन्दन, ऐसा। अच्छा आहार-पानी, अच्छा पानी, अच्छा सोने का, अच्छा बैठने का, अच्छा पलंग, बिछाने के, अच्छे गलीचे यह होवे तो ठीक... ठीक... यह अभिनन्दन आत्मा में आनन्द है – ऐसा भान और प्रतीति नहीं हो तब तक इसे यह ठीक ऐसा इसे हटता नहीं है। समझ में आया? स्वयं तो भगवान आत्मा है, जिसमें अतीन्द्रिय आनन्द पूरा पड़ा है, उसकी जहाँ दृष्टि हुई, (वहाँ) अब यह ठीक रहा कहाँ ? अज्ञानी तो हाश (करता है) श्वाँस लेने का अब समय मिला। हवा -पानी मिले कुछ, हाश.... गर्मी... गर्मी... गर्मी थी... बाहर का साधन, सर्दी, बहुत सर्दी, बहुत सर्दी... आहा...हा...! तीन दिन से तो सर्दी... सर्दी... सर्दी... सर्दी... सर्दी... गरीर के बाहर के सुख में ठीक, ठीक.... यह सर्दी हुई तो ठीक हआ.... अब सर्दी कम हो गयी, यह ठीक का – पर में सुख का अर्थात् अनुकूलता में ठीक का अभिनन्दन मिथ्यादृष्टि को होता है। समझ में आया?
मुमुक्षु - बोलने से पहले बहुत विचार करना पड़े ऐसा है।
उत्तर – बोलते पहले हो? भाव में (जागृति रहनी चाहिए) बोलने का क्या? बोले कौन?
परन्तु यह तो भाषा हुई, भाषा में क्या है ? भाव में इसे यह ठीक (हुआ), तो यह (आत्मा) ठीक नहीं रहा। आत्मा आनन्दमूर्ति है – ऐसी दृष्टि हुई उसे बाहर में यह देह
और देह के साधन में ठीक, अनुकूल होवे तो ठीक... अनुकूलता का अर्थ क्या? वे तो ज्ञेय हैं। समझ में आया? भूख लगी थी और अच्छा खाया, हाँ! ठीक खिलाया। ऐसा भाव
अन्दर की बात है। बाहर की कहाँ (बात है)? यह बात तो अज्ञानी भी बोले, ऐसा है-वैसा है... भाव में वह घोलन हुआ है। यह (आत्मा) इस ओर है – ऐसा पता नहीं। अतीन्द्रिय आनन्द का कन्द परमात्मा हूँ – ऐसी दृष्टि हुई, उसे देह और देह के सुख-साधन में अभिनन्दन नहीं रहता है। मुबारक रहना ऐसा, ऐसा नहीं कहते? यह पास होवे तब अभिनन्दन देते हैं न? हैं ? अभिनन्दन देते हैं न? क्या कहलाता है। सुधीरभाई! यह पढ़े तब क्या कहलाता है, पास होवे तब? मुबारकबाद। ऐसे अज्ञानी, शरीर और शरीर के सुख को मुबारकबाद देता है।