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योगसार प्रवचन ( भाग - १ )
ऐसा। समझ में आया ? यह शरीर मूर्तिक है न ? भगवान अमूर्तिक है, यह (शरीर) जड़ है, यह (आत्मा) चेतन है ।
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आत्मध्यान के साधक के लिए उचित है कि वह अपने को केवल जड़ शरीर रहित एक ज्ञानशरीरी शुद्ध आत्मा समझे । कहो, उसे पुद्गल परमाणुओं से रचित शरीर को एक पिंजरा अथवा कारागृह समझे । यह शरीर तोते को रखने का पिंजरा है। समझ में आया ? यह कारागृह है। तोता भले चाहे जैसा चतुर, होशियार (होवे ) परन्तु कारागृह में पड़ा हो तो उड़ नहीं सकता। स्वयं पड़ा है, हाँ ! कारागृह उसे नहीं रखता । कारागृह समान है। उसकी पर्याय स्वयं की योग्यता रोकने की है न ? उसे कारागृह समान जान। कहो, समझ में आया ? अपना सर्वस्व श्रेय अपने ही आत्मा में जोड़े ..... अपना सब श्रेय आत्मा में जोड़ दे । जितनी हित की क्रिया करनी हो, उसे अपने आत्मा में जोड़ने की है। सर्व पर तरफ से प्रेम दूर करे। लो, पर से प्रेम छोड़ दे - इत्यादि बहुत बात की है।
जब तक सम्यक्त्व नहीं होता, तब तक इस देह का और देह के सुख का अभिनन्दन करता है। जब तक आत्मा के शुद्ध चैतन्य की प्रतीति, आनन्दस्वरूप हूँ, आत्मा आनन्द और अतीन्द्रिय सुख से भरा हूँ - ऐसी श्रद्धा और ज्ञान जब तक नहीं होता, तब तक देह और देह के सुख का अभिनन्दन करता है। देह ठीक होवे तो ठीक और देह को अनुकूल होवे तो ठीक, इसकी यह बुद्धि नहीं जाती है। क्या कहा, समझ में आया ?
भगवान आत्मा अतीन्द्रिय आनन्द है - ऐसी सम्यग्दृष्टि न हो, तब तक शरीर और शरीर के साधन को अभिनन्दन - सहारा देता है। ऐसा होवे तो ठीक, यह होवे तो ठीक और यह होवे तो ठीक परन्तु मैं होऊँ तो ठीक - ऐसा नहीं मानता। सम्यग्दृष्टि अपने आत्मा के स्वभाव में आनन्द मानता है, देखता है, अनुभव करता है; इसलिए शरीर और शरीर के साधन में कहीं उसका पोषण (या) अभिनन्दन नहीं है। अभिनन्दन कहा है न ? शरीर निरोग रहे तो ठीक, यह देह का अभिनन्दन है। यह अभिनन्दन सम्यक्त्वी को नहीं होता, मिथ्यादृष्टि अभिनन्दन देता है । हाश... छह महीने से रोगी थे, अब मिटे... हाश... यह थे परन्तु रोग तो तेरा भ्रम था, वह मिटा, अब तुझे इसका क्या काम है ? है ? ऐसा कहते हैं, हाँ !