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तन विरहित चैतन्य तन, पुद्गल तन जड़ जान । मिथ्या मोह विनाश के, तन भी निज मत मान ॥
अन्वयार्थ – ( असरीरू वि सुसरीरू मुणि) अपने शरीररहित आत्मा को ही उत्तम ज्ञानशरीर समझे (इहु सरीरू जडु जाणि) इस पुद्गल रचित शरीर को जड़ व ज्ञानरहित जाने (मिच्छा मोहु परिच्चयहि ) मिथ्या मोह का त्याग करे ( मुत्ति णियं वि माणि) मूर्तिक इस शरीर को भी अपना नहीं माने।
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गाथा - ६१
अब, ६१ । निर्मोही होकर अपने अमूर्तिक आत्मा को देखे । यहाँ तो सार में सार, बदल-बदलकर दूसरी बात लेते हैं।
असरीरू वी सुसरीरू मुणि इहु सरीरूजडु जाणि ।
मिच्छा - मोहु परिच्चयहि मुत्ति णियं वि ण माणि ॥ ६१ ॥
अपने शरीररहित आत्मा को ही उत्तम ज्ञानशरीरी समझो। देखा, अपने ‘असरीरु' आत्मा शरीररहित 'सुसरीरु' परन्तु ज्ञानशरीरसहित... 'सुसरीरु' है न ? उत्तम ज्ञानशरीर, ऐसा ।
मुमुक्षु - सुशरीर ।
उत्तर - हाँ, सुशरीर है । वह शरीररहित परन्तु सुशरीरसहित (है)। सुशरीर अर्थात् उत्तम ज्ञान । चैतन्य परमभाव, चैतन्य का • आत्मा का परमभाव, वह उसका शरीर है ।
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"इहु सरीरु जडु जाणि' ' इस शरीर को जड़ जान । समझ में आया ? पुद्गल रचित शरीर को जड़ और ज्ञानरहित जानो । मिथ्या मोह का त्याग करो । एक बात
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- जड़ (के ऊपर से) दृष्टि हटाकर और पर तरफ का मिथ्या मोह - भ्रम... कुछ पर में
ठीक होवे तो (मुझे) ठीक पड़े। ऐसा होवे तो ऐसा पड़े, प्रतिकूलता टले तो ठीक पड़े, अनुकूल एकान्त जगह (होवे) संसार छोड़कर बाहर हों तो ठीक पड़े - यह सब मोह है। कहते हैं, समझ में आया ? जहाँ बैठा वहाँ जंगल है, तुझे पता नहीं । मिथ्या मोह का त्याग करना मूर्तिक ऐसे इस शरीर को भी अपना मत मानो......