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योगसार प्रवचन (भाग-१)
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धर्मी (जिसे) आत्मा आनन्दमूर्ति है – ऐसी प्रतीति और भान हुआ है, वह बाहर के शरीर और शरीर के साधनों में मुबारकपना नहीं मानता। आहा...हा...! एक ओर राम
और एक ओर गाँव । भगवान राम की - आत्मा की जहाँ दृष्टि हुई, वह तो सच्चिदानन्द प्रभु सिद्ध समान मैं हूँ, मैं तो ज्ञान और आनन्द का कन्द हूँ। मेरे आत्मा में अतीन्द्रिय आनन्द की खान है। ऐसी श्रद्धा-सम्यग्दर्शन, स्वभाव सन्मुख होकर हुआ (वह) बाह्य के किसी भी साधन को ठीक है – ऐसा मानने का अभ्यन्तर में नहीं रहा। आहा...हा...! समझ में आया?
मिथ्यादृष्टि इन्द्रियों के विषय के भोग का लोलुपी है, ऐसा। समझ में आया? तीव्र लालसा रखता है, ऐसी सब बहुत बात करते हैं। वह मिले तब हर्ष और न मिले तब विषाद करता है, वियोग होने पर शोक करता है। जैसे-जैसे मिलता है, वैसे-वैसे
अधिक तृष्णा की जलन बढ़ा लेता है। जैसे पैसा मिले, स्त्री मिले, पुत्र मिले, अनुकूल मिले, मकान मिले, ठीक मिले, कपड़ा मिले, सोने का-ओढ़ने का, हवा-पानी सब चारों
ओर... ऐसा... ओ...हो...! वहाँ तो इसे अन्दर हाश (हो जाता है)। अभी अब बादशाही है। मूर्ख की बादशाही – ऐसा कहते हैं और ज्ञानी की बादशाही आत्मा में है - ऐसा कहते हैं । यह आनन्द है, आनन्द है, वही आत्मा है। दूसरा आनन्द कहीं है ही नहीं। उसे बाहर में अभिनन्दन-पोषण देना, यह नहीं रहा। अज्ञानी को अन्तर के आनन्द का पता नहीं है, इसलिए बाहर का पोषण दिये बिना नहीं रहेगा।
'शरीर से सुखी तो सुखी सब बातें' लो! आता है या नहीं? जयचन्दभाई! बहुत बोलते हैं हमारे । कैसे हुआ? अब कहाँ तक रहेगा यह ? शरीर से सुखी तो सुखी सब बातें' - यह रट रखा है। इसका अर्थ कि शरीर दुःखी तो दु:खी सब बातें' - ऐसा। पैसा हो, पुत्र हो तो भी दुःखी हैं। धूल में भी बाहर में सुख-दु:ख नहीं है, व्यर्थ में टेका देता है। रहने योग्य चीज नहीं उसे टेका देता है। समझ में आया? वह रहने योग्य चीज नहीं है, उसे अभिनन्दन देता है कि ठीक हुआ, रहना, रहना, रहना। मूढ़ अनित्य को रहना कहता है। अनित्य को रहना, यह मान्यता मिथ्यादृष्टि की है। आहा...हा...! समझ में आया?
मिथ्या, मोह, परिचय.... शब्द पड़ा है न। उसकी सब व्याख्या है, हाँ! मिथ्या, मोह