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________________ योगसार प्रवचन ( भाग - १ ) ४१५ उसमें ध्यान करके एकाग्र होकर केवलज्ञान हो सकता है। ऐसा यदि स्वरूप होवे तो वह चेतन में ही है। जड़ में, शरीर में, वाणी में है नहीं । कहो, समझ में आया ? ✰✰✰ अपने भीतर ही मोक्षमार्ग है अब्भिंतरहँ जे जोवहिं असरीरू । णासग्गिं बाहुडि जम्मिण संभवहिं पिवहिं ण जणणी - खीरू ॥ ६० ॥ ध्यान धरे अभ्यन्तरे, देखत जो अशरीर । मिटे जन्म लज्जा जनक, पिये न जननी क्षीर ॥ अन्वयार्थ – ( जे णासग्गि अब्धिंतरहं असरीरू जीवहिं ) जो ज्ञानी नासिका पर दृष्टि रखकर भीतर शरीरों से रहित शुद्ध आत्मा को देखते हैं (बाहुडि जम्मि णं संभवहिं) वे फिर बारम्बार जन्म नहीं पाएँगे ( जणणी खीरू ण पिवहिं ) वे फिर माता का दूध नहीं पियेंगे । ✰✰✰ ६०.... अपने भीतर ही मोक्षमार्ग है । यह मोक्षमार्ग आत्मा में है । णासग्गिं अब्भिंतरहँ जे जोवहिं असरीरू । बाहुडि जम्मिण संभवहिं पिवहिं ण जणणी - खीरू॥६०॥ जो ज्ञानी नासिका पर दृष्टि रखकर..... (नासिका पर अर्थात् ) अन्तर्मुख दृष्टि रखकर... नासिका को एक बाहर का निमित्त लिया है। समझ में आया ? 'णासग्गिं' अर्थात् अन्तर उग्ररूप से ध्यान रखकर .... दृष्टि रखकर अन्दर शरीररहित..... भगवान आत्मा आकाश के समान वहाँ गिना, तथापि चेतन कहा, उसे अब यहाँ ध्यान (करने का ) कहते हैं। ऐसा चैतन्यमूर्ति आत्मा, उसमें अभ्यन्तर मुख्य ज्ञानानन्द को अग्र बनाकर अन्तरध्यान करे तो उसका मोक्षमार्ग अन्तर में ही है। समझ में आया ? धर्मी जीव नासिका पर दृष्टि अर्थात् अन्तर (स्वरूप) पर दृष्टि रखकर ... मुख्य वस्तु जो है, उस पर दृष्टि
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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