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गाथा-५९
__अभव्यस्वभाव... समस्त द्रव्य परद्रव्य के स्वभावरूप कभी नहीं हो सकते। कोई पदार्थ... सब अभव्य हैं । सब द्रव्य भव्य है और सब द्रव्य अभव्य है। भव्य अर्थात् अपने स्वभाव में रहने की योग्यतावाले हैं। अभव्य अर्थात् पररूप नहीं होने की योग्यता है, पररूप नहीं होने की योग्यता है।
परमस्वभाव... भगवान आत्मा और प्रत्येक में (प्रत्येक द्रव्य में) परमस्वभाव है। परमपारिणामिकभाव से परमस्वभावी सभी पदार्थ हैं। परमाणु भी परमस्वभावी हैं, आकाश भी परमस्वभावी-पारिणामिकभाव से परमस्वभावी है। यह परमस्वभावी होने पर भी ज्ञान वह स्वयं आत्मा को जाननेवाला परमस्वभाव, यह ज्ञान की विशेषता है। कहो, समझ में आया?
सामान्यगुण और स्वभावों की अपेक्षा से जीवादि छहों द्रव्य समान हैं परन्तु विशेषगुणों की अपेक्षा से उनमें अन्तर है। बड़ा अन्तर है, दूसरों में इसके जाति के गुण हैं। जीव द्रव्य में ज्ञान, दर्शन, वीर्य, सुख, चेतना, सम्यक्त्व चार विशेष गुण हैं, वे आत्मा में ही हैं। जानना, प्रतीति करना, स्थिरता करना, आनन्द । वीर्य तो दूसरे में भले हो। आकाशादि पाँच द्रव्यों में वह नहीं है। आकाश, यह पाँच द्रव्य अचेतन हैं, आत्मा सचेतन है । मूलस्वभाव से सभी द्रव्य शुद्ध है। लो, यह शुद्ध आया तुम्हारा । शुद्ध है, उसे क्या ध्यान करना रहा? परन्तु यह शुद्ध है, उसे ध्यान करना है – ऐसा कहते हैं। उसका ज्ञान करना है।
जैसे आकाश निर्मल है, वैसे ही यह आत्मा निर्मल है। धर्मी को उचित है कि स्वानुभव प्राप्त करे.... लो, अपना स्वभाव शुद्ध है – ऐसा अनुभव से प्राप्त करे। जड़ को शुद्धता है, उसे क्या प्राप्त करना? वह तो प्राप्त है ही। यह तो शुद्ध चैतन्य आनन्द... मूल चैतन्य आनन्द को अपने ध्यान द्वारा प्राप्त करे। ऐसा स्वभाव आत्मा में है। कहो, समझ में आया? यही निर्वाण का उपाय है। लो, यह एक ही मोक्ष का उपाय है। कौन सा? स्वानुभव प्राप्त करे, वह निर्वाण का उपाय है। दूसरे में वह स्वानुभव है नहीं। मुक्ति का उपाय भगवान आत्मा चेतन होने से चेतनरूप जागृत होकर अपना अनुभव करे, वही अपनी मुक्ति का उपाय है। परद्रव्य भले उसमें नहीं, इस अपेक्षा से सब समान होने पर ही