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योगसार प्रवचन (भाग-१)
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को आकाश के समान कहा परन्तु आकाश सर्वज्ञ से ज्ञात होने योग्य है, इससे (स्वयं से) ज्ञात होने योग्य वह नहीं है। समझ में आया? समानता में अन्तर है, ऐसा । सर्वज्ञ से ज्ञात हो ऐसे आकाशादि हैं। आत्मा भी सर्वज्ञ में (सर्वज्ञ के ज्ञान में) ज्ञात होता है, परन्तु आत्मा को स्वयं स्वयं से ज्ञात हो ऐसा है। समझ में आया? सर्वज्ञ से ज्ञात ऐसा आत्मा तो है. आकाश भी वैसा है। यह आत्मा तो सचेतन होने के कारण स्वयं अपने से ज्ञात होने योग्य है, यह (गुण) आकाश में नहीं है। समझ में आया?
वस्तुत्व रह गया, देखो! सभी द्रव्य अपना-अपना कार्य स्वतन्त्ररूप से करते हैं। आकाश आदि सभी द्रव्य अपनी पर्याय का कार्य वस्तुत्व गुण के कारण स्वतन्त्र करते हैं। लो, यह एक समझे तो इसमें सब समाहित हो जाता है। कोई किसी को करता नहीं है, वस्तुत्व गुण के कारण आकाश और आत्मा, पुद्गल और आत्मा – ऐसे सभी द्रव्य, अपनी-अपनी पर्याय का कार्य करते हैं। कार्य करते हैं, आकाश भी करता है, आत्मा भी करता है परन्तु आत्मा में अन्तर है। आत्मा सचेतन होकर करता है। समझ में आया? जानकर जानने का, ज्ञान-दर्शन आनन्द के काम को करता है, वह दूसरे में है नहीं। समझ में आया?
अगुरुलघुत्व.... सभी द्रव्य अपने-अपने गुणपर्यायों को ही अपने में रखते हैं। अपने-अपने गुणपर्यायों को रखते हैं। यह तो आकाश भी अपने गुणपर्यायों को रखता है, आत्मा भी अपने गुणपर्यायों को रखता है परन्तु यह जाननेवाला होकर रखता है, इतना अन्तर है। समझ में आया? सचेतन भगवान अपने गुणपर्याय को ज्ञान द्वारा साधकर अपने में रखता है, ऐसा एक स्वभाव चैतन्य में है, वह आकाश में नहीं है । देखो! आकाश बड़ा है, उसके साथ उपमा दी है। आकाश सर्व व्यापक है न? आकाश सर्व व्यापक है, उसके साथ (उपमा) दी है। आकाश जैसा आत्मा है, आकाश शुद्ध है ऐसा यह शुद्ध है। (आकाश) क्षेत्र से सर्व व्यापक है, यह चैतन्यभाव से सर्व को जाननेवाला सर्वव्यापी है। समझ में आया?
प्रदेशत्व.... प्रत्येक (द्रव्य) अपना कोई भी आकार रखता है, कोई जगह घेरता है या नहीं? कोई भी पदार्थ जगह घेरता है, तो आकाश भी जगह को घेरता है, आत्मा भी