________________
४१२
गाथा-५९
जगह को घेरता है, परमाणु जगह को घेरता है, परन्तु अन्तर है। जगह घेरते हैं – इस अपेक्षा से समान है परन्तु जानने के-सचेतन अपेक्षा से अन्तर है – ऐसा सिद्ध करना है। घेरता है, वह ज्ञान अपने को जानता है; घेरते हैं, वे जड़ जानते नहीं – इतने क्षेत्र में असंख्यात प्रदेशी घेरे हुए हैं, वह चेतन जानता है। जड़ जानेगा जड़ को? शुद्ध की समानता एक अपेक्षा से होने पर भी उन दोनों में बड़ा सचेतनपने का अन्तर है। आहा...हा...! समझ में आया?
थोड़ी स्वभाव की बात की है। सभी द्रव्य भावपने का स्वभाव रखते हैं। आकाश भी अपने भावपने को रखता है न? आत्मा भी अपने भावपने को, अस्ति, अस्तिभावपने (को) रखता है न? भावपने को रखता है, तथापि अन्तर है – ऐसा है। भावपना रखने में अन्तर नहीं परन्तु दूसरे ज्ञान और आनन्द में अन्तर है इसमें । जानना, आनन्द को जानना और आनन्द का वेदन करना, यह तो आत्मा में ही है। समझ में आया? हैं ? क्या कहते हैं ?
मुमुक्षु - इतने स्पष्टीकरण के बाद समझ में आया?
उत्तर – स्पष्टीकरण करो, पण्डितजी! यह क्या कहते हैं ? इतना समझाने के बाद समझ में आया? ऐसा निमित्त से फिर समझ में आया, पहले नहीं समझ में आता था - ऐसा कहते हैं।
परद्रव्यों के स्वभावों का परस्पर में अभाव है। दूसरे की सत्ता दूसरे में नहीं है। आत्मा में दूसरे पदार्थ की सत्ता नहीं है, आकाश में भी दूसरे पदार्थ की सत्ता नहीं है, इस प्रकार समान है। इसमें भी दूसरे पदार्थ का अभाव है; भगवान आत्मा में भी परद्रव्यों का अभाव है. पर में परद्रव्य का अभाव है परन्त अन्तर इतना कि यह (आत्मा) सचेतनपना (रखता है)। 'अप्पा चेयणु वंतु' चेतनवन्त। यह चेतनवन्त जाननेवाला भगवान है। यह शक्तियाँ कही, स्वभाव कहा, सभी गुण कहे परन्तु उनका जाननेवाला एक आत्मा है। दूसरे गुणों को उन्हें (स्वयं को) पता नहीं - ऐसा आत्मा में भी दूसरे गुण भले हों परन्तु वे जाननेवाले नहीं। समझ में आया? चेतनवन्त यह एक ही गुण इसका है कि स्वयं जाननेवाला है।
कायम रहने की अपेक्षा से प्रत्येक द्रव्य नित्य है। आत्मा भी नित्य है, वह भी नित्य