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गाथा-५९
ऐसा कहते हैं कि शुद्ध है, उसे क्या ध्यान (करने का है)? शुद्ध है। ध्यान जड़ को नहीं (होता), इसीलिए तो दोनों का अलग किया है। आकाश शुद्ध है, चैतन्य शुद्ध है; चैतन्यजीव शुद्ध है परन्तु जीव शुद्ध है, वह चैतन्य है - चेतनेवाला है। क्या? चेतनेवाला है, जाननेवाला है, एकाग्र होनेवाला है, चेतने के योग्य है – ऐसा कहते हैं। पाठ है न? 'चेयण वंतु' – वह चेतनवंत है। समझ में आया? भगवान आत्मा (को) आकाश के समान शुद्ध कहा, परन्तु आकाश तो जड़ है। उसे कहाँ मैं शुद्ध हूँ – ऐसा समझना है ? यह तो चैतन्य है, वह शुद्ध है - ऐसा चैतन्य जागृत होकर शुद्ध का ध्यान करे, तब पर्याय में शुद्धता प्रगटती है – ऐसा जड़ और चैतन्य में अन्तर है – ऐसा कहते हैं। समझ में आया? यह चेत सकता है। जड में चेतना कहाँ है? अपना चैतन्य शद्धस्वरूप. उसे चेत सकता है, जान सकता है, जागृत होकर ध्यान कर सकता है, उसमें लीन हो सकता है; इसलिए चैतन्य, आकाश की शुद्धता की अपेक्षा से, इस अपेक्षा से पृथक् पड़ा। समझ में आया?
आकाश भी द्रव्य है और आत्मा भी द्रव्य है, तथापि द्रव्यपने की अपेक्षा से भले समान हो... समझ में आया? सर्व द्रव्यों में छह सामान्यगुण तो समान है। सामान्यगुण हैं। (वे) इसमें नहीं लिखे होंगे। अस्तित्वगुण आकाश में भी है और आत्मा में भी है – ऐसा कहते हैं। सभी द्रव्य सदा हैं और सदा शाश्वत् रहेंगे।आकाश भी सदा से है और सदा रहनेवाला है; आत्मा भी सदा से है और सदा रहनेवाला है; तथापि दोनों में अन्तर क्या है ? - वह यहाँ बतलाया है। समझ में आया?
द्रव्यत्व है, स्वभाव और विभावदशा उसमें हुआ करती है। किसमें? आत्मा में और पर में-सब में, जिसकी योग्यता हो उसमें । द्रवता, द्रवता है। समझ में आया? परमाणु भी स्वभावरूप परिणमता है, पुद्गल विभावरूप परिणमता है, दूसरे चार (द्रव्य) तो स्वभावरूप (परिणमते हैं) परन्तु ऐसे द्रव्यत्वगुण के कारण परिणमित होना, प्रत्येक द्रव्य का सामान्य धर्म है परन्तु इसका (आत्मा का) धर्म अलग प्रकार का है – ऐसा सिद्ध करना है। समझ में आया?
प्रमेयत्व.... सभी द्रव्य सर्वज्ञ द्वारा जानने योग्य हैं। सभी द्रव्य प्रमेयत्व हैं। सभी पदार्थ ज्ञात होने योग्य हैं परन्तु जाननेवाला यह चैतन्य अकेला है। समझ में आया? आत्मा