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________________ योगसार प्रवचन (भाग-१) ४०९ जेहउ सुद्ध अयासु जिय तेहउ अप्पा वुत्तु। आयासु वि जडु जाणि जिय अप्पा चेयणुवंतु॥५९॥ हे जीव! जैसा आकाश शुद्ध है, वैसा ही आत्मा शुद्ध है - ऐसा कहा है। आकाश अत्यन्त बादलों से... पंचरंगी बादल हो या पाँच अन्य द्रव्य उसमें हों, परन्तु उनके रंग से वह आकाश रंगा हुआ नहीं है। इसी तरह आत्मा, विकार या संयोग या परचीज से रंगा हुआ नहीं है। वह आकाश शुद्ध है, वैसे आत्मा शुद्ध है – उसका एकाग्र होकर ध्यान करना, इसे योगसार कहते हैं। समझ में आया? हे जीव! आकाश को जड़-अचेतन जान। अन्तर इतना। शुद्ध तो दोनों हैं, कहते हैं। आकाश भी शुद्ध है, ऐसे आत्मा भी शुद्ध हैं । आकाश जड़ शुद्ध है; (आत्मा) चैतन्य शुद्ध है । ज्ञानमूर्ति परम ब्रह्म अनादि-अनन्त – ऐसा आत्मा शुद्ध, आकाश की तरह (शुद्ध है) परन्तु आकाश जड़ और यह चैतन्य है। आकाश, आकाश का ध्यान नहीं कर सकता, क्योंकि उसमें ज्ञान नहीं है, जड़ है। आकाश शुद्ध होने पर भी, आकाश, आकाश का ध्यान करे – ऐसा उसमें है नहीं; और आत्मा आकाश के समान शुद्ध होने पर भी, वह ज्ञानस्वरूप है, वह ज्ञान का ध्यान कर सकता है। कहो, समझ में आया? मुमुक्षु - शुद्ध को ध्यान करने की आवश्यकता ही कहाँ है? उत्तर – शुद्ध को ध्यान करने की आवश्यकता नहीं है, शुद्ध तो द्रव्य है। क्या कहा? शुद्ध तो द्रव्य हुआ, परन्तु पर्याय में शुद्धता के लिये? मुमुक्षु – आकाश को ध्यान करना रहता ही नहीं। उत्तर – आकाश को ध्यान करना नहीं रहता, जड़ है, इसलिए – ऐसा कहा। शुद्ध तो वह भी है; इसके लिए तो यह अन्तर कहा है। आकाश शुद्ध है और आत्मा भी शुद्ध है; दोनों में - शुद्ध में अन्तर है। उसे (आकाश को) शुद्धता का ध्यान करने का गुण नहीं है और यहाँ शुद्धता भरी हुई है, यह ज्ञानस्वरूप है, आनन्दस्वरूप है; इसलिए उस शुद्धात्मा का ध्यान करने योग्य है – ऐसा कहना है । शुद्ध है, इसलिए ध्यान करे – ऐसा नहीं; चेतन नहीं है, इसलिए ध्यान करने के योग्य नहीं है। समझ में आया? देवानुप्रिया ! ये तर्क अलग प्रकार के हैं।
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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