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________________ आकाश के समान होकर भी मैं सचेतन हूँ जेहउ सुद्ध अयासु जिय तेहउ अप्पा वुत्तु। आयासु वि जडु जाणि जिय अप्पा चेयणुवंतु॥५९॥ जैसे शुद्ध आकाश है, वैसे ही शुद्ध जीव। जड़रूप जानो व्योम को, चेतन लक्षण जीव॥ अन्वयार्थ – (जिय) हे जीव! (जेहउ अयासु सुद्ध तेहउ अप्पा वुत्तु ) जैसा आकाश शुद्ध है वैसा ही आत्मा कहा गया है (जिय आयासु वि जडु जाणि) हे जीव! आकाश को जड़ अचेतन जान तथा (अप्पा चेयणुवंतु ) आत्मा को सचेतन जान। वीर संवत २४९२, आषाढ़ शुक्ल १२, गाथा ५९ से ६२ बुधवार, दिनाङ्क २९-०६-१९६६ प्रवचन नं. २१ यह योगसार शास्त्र है।५८ गाथा हुई। ५८ गाथा में ऐसा कहा था – जैसे आकाश है, (वह) परपदार्थ से शून्य है, ऐसे यह आत्मा परपदार्थ से शून्य है। आकाश में अनेक पदार्थ रहते दिखते होने पर भी, वे अनेक पदार्थ, पदार्थ में रहे हैं, आकाश में नहीं; इसी प्रकार भगवान आत्मा के साथ राग-द्वेष, शरीर, कर्म आदि संयोगी चीजें, या संयोगी भाव दिखते हैं परन्तु जैसे, आकाश में पर नहीं है, वैसे ही आत्मा में वे परपदार्थ नहीं है। समझ में आया? मात्र अन्तर क्या है? – वह बात यहाँ करते हैं। आकाश-समान होने पर भी मैं सचेतक हूँ। आकाश में पर नहीं है परन्तु वह आकाश अचेतन है और यह आत्मा ज्ञान, चैतन्यस्वभाव जीव है। उस आकाश में चैतन्यस्वभाव नहीं है - यह बात करते हैं।
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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