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योगसार प्रवचन (भाग-१) जैसे हैं, तथापि मेरी शुद्ध सत्ता से वे निराले हैं। एक नहीं कुछ, शुद्ध सत्ता एक नहीं हो जाती है। आहा...हा... ! कहो, समझ में आया?
मेरे ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य, सम्यक्त्व, चारित्र, चेतना आदि गुण, निराले है, मेरा परिणमन निराला है.... उनके गुण निराले उनका परिणमन निराला, मेरे गुण निराले, मेरी परिणति निराली... समस्त आत्माओं का परिणमन निराला है। मैं अनादि काल से अकेला ही रहा हूँ और अनन्त काल तक अकेला ही रहनेवाला हूँ।
अनादि संसार भ्रमण में मेरे साथ अनन्त पुद्गलों का संयोग हुआ परन्तु वे सब मुझसे दूर रहे हैं। लो! जैसे सूर्य के ऊपर बादल आने पर भी सूर्य अपने तेज में प्रकाशवान रहता है.... सूर्य पर वर्षा बरसे तो सर्य को कछ होगा? बादल-बादल से (कुछ होता होगा) संसार अवस्था में अनेक माता-पिता, भाई-पुत्र के साथ सम्बन्ध प्राप्त किया परन्तु वे सब मुझसे भिन्न ही रहे हैं... लेना या देना कुछ नहीं था। बहुत परपदार्थों का संग पाया परन्तु वे मेरे नहीं हुए.... एक रजकण भी अपना नहीं हुआ। दो भाई तो, 'डण्डे मारने से पानी अलग नहीं पड़ता' ऐसा लोग कहते हैं। कैसे होगा? पाँच भाई भिन्न हो गये, तुम्हारे लड़के भी अलग हो गये। अलग तो अलग ही होंगे न ! अलग हों वे अलग ही होंगे। आहा...हा... ! मैं उनका नहीं हुआ।लो! 'देहादिउ जो परु मुणइ' देहादि पर का अनुभव कर, पररूप है, ऐसा । तू तेरा चैतन्यमूर्ति है – ऐसा अनुभव कर। इसलिए मुझे ऐसी ही दृढ़ श्रद्धा रखनी चाहिए कि मैं सदा रागादि विकारों से शून्य रहा था, अभी भी हूँ और भविष्य में भी (शून्य ) रहूँगा।लो! फिर परमात्मप्रकाश का दृष्टान्त दिया है, तत्त्वानुशासन का दृष्टान्त दिया है। लो! समझ में आया? बस ! दो हुए, ५९ वीं कहेंगे।
(श्रोता : प्रमाण वचन गुरुदेव!)