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गाथा-५८
या एक (होकर रहे होंगे)? यहाँ (अलग) कहते हैं, वहाँ घर जाये तो पता पड़े इसे । वह 'पूनमचन्द' कहे, बापूजी ! मैं कुछ तुम्हारा धर्म छोडूंगा नहीं, हाँ! आहा...हा...!
ज्ञानी को समझना चाहिए कि आत्मा आकाश के समान अमूर्तिक है, आत्मा के सर्व असंख्यात प्रदेश अमूर्तिक है.... यह कुछ नहीं। आधार-आधार की बात नहीं, वे तो अलग रही हुई चीजें हैं। यहाँ अलग चीज भले तैजस और कार्माण (शरीर) रहे परन्तु वे अलग के अलग ही। आधार-फाधार आत्मा की पर्याय का भी उन्हें नहीं है। समझ में आया? भिन्न-भिन्न है। लो!
कषाय की मन्दता, तीव्रता का भाव, उससे भी आत्मा अत्यन्त भिन्न है। मेरा कोई सम्बन्ध मन-वचन-काया की क्रिया के साथ नहीं है। लो, वे कहते हैं, मन -वचन और काया की क्रिया से आत्मा को बन्ध होता है और धर्म होता है। हैं? आहा...हा...! मन, वचन और काया की क्रियाओं के साथ मुझे और उसे कोई सम्बन्ध नहीं है। सम्बन्ध नहीं इसलिए धर्म नहीं और सम्बन्ध नहीं उससे बन्ध भी नहीं। आहा...हा... ! मैं बिल्कुल पर के मोह से शून्य हूँ, मैं परम वीतरागी और निर्मल हूँ। ऐसा ठीक लिखा है। जगत् में मेरे आत्मा को कोई माता-पिता है न कोई पुत्र है, न मित्र है, न कोई स्त्री है, न बहिन है, न पुत्री है, न कोई मेरे आत्मा का स्वामी है, न मैं किसी का स्वामी हूँ, न मैं किसी का सेवक हूँ, नहीं मेरा कोई सेवक है, न मेरा कोई गाँव है, न धाम है.... गाँव भी नहीं और धाम भी नहीं। न कोई वस्त्र है न आभूषण है। लो!
मुझे परवस्तु के साथ किसी भी प्रकार का रंचमात्र भी सम्बन्ध नहीं है। आहा...हा...! देखो! यह भेदज्ञान है, यह भेदज्ञान है। है, वैसा ज्ञान, ऐसा। भेदज्ञान अर्थात् ? जैसी चीजें पृथक् है, वैसा उनका ज्ञान (होना), उसका नाम भेदज्ञान है । मुझमें समस्त पर का अभाव है, समस्त पर में मेरा अभाव है। मुझमें पर का अभाव और पर में मेरा अभाव है। विश्व के अनन्त संसारी और सिद्धात्माओं.... जगत् के – संसार के अनन्त जीव या सिद्ध के अपने मूल स्वभाव से मेरे आत्मा के स्वभाव जैसे ही हैं। तो भी मेरी सत्ता भिन्न ही है.... भले अनन्त सिद्ध और अनन्त संसारी मेरी सत्ता जैसे हैं, शुद्ध सत्ता