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गाथा-५७
पर्याय में निमित्त के संग से एक समय की दशा (है), बन्धस्वभावी भगवान न होने पर भी पर्याय में – एक अंश में बन्धपना हुआ, वह अबन्धद्रव्य का स्वभाव नहीं है। आहा...हा...! समझ में आया? वह तो पर्यायदृष्टि का परिणमन है, वह द्रव्यदृष्टि में द्रव्य का परिणमन है ही कहाँ ? द्रव्यस्वभाव वैसा है ही कहाँ ? ऐसा बतलाना है। ओ...हो...! ऐसा सीधा सत्... सत् स्वतः सहज सरल, सतत् सुलभ है।
भगवान आत्मा अकेला स्फटिक जैसा, तीन काल-तीन लोक, काल और क्षेत्र में अपना भाव छोड़कर विकाररूप होवे – ऐसा उसका स्वरूप है ही नहीं। समझ में आया? भाव अर्थात् गुण, शक्ति। वह फिर इन्होंने लिखा है.... ऐसा कुछ नहीं। (जयसेनाचार्य की गाथा का दृष्टान्त दिया है । ३०० से ३०१) २७८ में (अमृतचन्द्राचार्य की टीका में) है। उस स्फटिकमणि में से (उस दृष्टान्त से) आत्मा निकलता है। आहा...हा... ! देह में चैतन्य स्फटिकमणिरत्न है। अनादि-अनन्त चैतन्यरत्न स्फटिकमणि है – ऐसी दृष्टि करने से उसे सम्यक् रत्न प्रगट होता है । वह रत्न स्फटिक रत्न है, उसकी दृष्टि करने से सम्यक् रत्न प्रगट होता है। राग की-पुण्य की दृष्टि करने से सम्यक्रत्न होगा? वे (कहाँ) रत्न हैं ? रत्न तो यह है । आहा...हा...! समझ में आया?
नौवाँ अग्नि का दृष्टान्त.... यह आत्मा अग्नि के समान सदा जलता रहता है। सदा ज्वाजल्यमान ज्योति है। जैसे अग्नि में प्रकाश, दाहक और पाचक गुण है, वैसे ही आत्मा में भी सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र त्रिकाली गुण हैं। समझ में आया? अग्नि, प्रकाशक है; अनाज को पचाती है; ईंधन को जलाती है। दाहक-जलाती है; ऐसे ही भगवान अग्नि के समान हैं, जिसका त्रिकाल स्वभाव चैतन्य का, स्व-पर का प्रकाशित करने का है, पाचक का है, पूर्ण तत्त्व पचा सके - ऐसी ताकत उसमें त्रिकाल पड़ी है, पूर्णानन्द का नाथ मैं परमेश्वर पूरा एक समय में हूँ - ऐसी पचाने की शक्ति उसमें त्रिकाल पड़ी है और उसमें चारित्र नाम का त्रिकाल गुण है कि जो अज्ञान और राग-द्वेष को जलाकर राख करता है - ऐसा उसमें त्रिकाल गुण है। कहो, समझ में आया इसमें ? कहो, यह तो दृष्टान्त में से तो समझ में आवे ऐसा है या नहीं? दृष्टान्त में से मिले – ऐसा नहीं भले । हैं ? दृष्टान्त में से मिले? दृष्टान्त में से समझ में आये ऐसा है, मैंने ऐसा कहा। कहो, समझ में आया?