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________________ गाथा - ५७ ३९६ हैं । निगोद और सिद्ध मानो एक करते हों । भिन्न पदार्थ हैं। समझ में आया ? आहा... हा...! सर्वज्ञ द्वारा कथित तत्त्व तीन काल में बदले ऐसा नहीं है। लोगों को शंका और सन्देह (रहता है) । वास्तविक परमात्मा ने क्या कहा है ? उसका पता नहीं है । 1 न कभी अन्य गुण को स्थान देता है। पत्थर कहीं दूसरे को स्थान नहीं देता, वैसे ही आत्मा असंख्य प्रदेशी अनन्त गुण का कठिन पिण्ड, वह दूसरे को स्थान नहीं देता। इस विकल्प को भी वह स्थान नहीं देता – ऐसा आत्मा पत्थर के समान चिकना है आहा...हा... ! क्या कहलाता है ? चिरोली निकलती है और बहुत ऊँची ? क्या कहलाती है ? तुम्हारे लड़के को प्रकाश ... लो, वह प्रकाश और वह चिरोली.... चिरोली बहुत ऊँची । ऐसी मक्खन जैसी, नीचे ऐसी सफेद... सफेद... सफेद... नीचे जैसे जाते जाएँ न... आटा बनाकर सेना के व्यक्तियों को रोटियाँ खिलावे (तो) हड्डियाँ मजबूत हों । यह तो चिकना पत्थर... ऐसा आत्मा अनादि का है, उसमें से कुछ खिरे ऐसा नहीं है । अनन्त गुण का संग्रह करके पड़ा है, दूसरे को स्थान दे - ऐसा नहीं है । यह भगवान अनन्त गुण का पिण्ड, अनन्त गुणका पिण्ड - पत्थर किसी को स्थान दे ऐसा नहीं । राग और कर्म और शरीर को स्थान दे - ऐसा आत्मा नहीं है । कहो, समझ में आया ? - अगुरुलघु सामान्य गुण द्वारा यह अपनी मर्यादा में टिक रहा है। पत्थर की उपमा दी है न! आठ कर्मों के संयोग से संसार-पर्याय में रहता है तो भी कभी अपना स्वभाव छोड़कर आत्मा में से अनात्मा नहीं हो जाता। निश्चल परम दृढ़ सदा रहता है। विकार के पर्यायरूप भी वस्तु स्वयं द्रव्य ज्ञायकभाव वह कभी नहीं हुआ - ऐसा दृढ़ है कि पानी की बिन्दु जैसे पत्थर में प्रविष्ट नहीं होती, मजबूत पत्थर में पानी प्रवेश नहीं पाता, मगसेलिया पत्थर ऐसे बारीक होते हैं। मगसेलिया, मगसेलिया समझते हो, मूँग के दाने जैसा। वहाँ रेत में बहुत होते हैं, हमने तो बहुत देखे हैं न ! रेत के अन्दर ऐसा बारीक, चिकना.... पानी छुए ही नहीं उसे । पानी रहे तो कैसा ? परन्तु छुए ही नहीं पड़ा साथ में ऐसा.... बहुत चिकनाहट, मूँग के दाने जैसा । मगसेलिया पत्थर होता है, मगसेलिया । ऐसा यह पत्थर ऐसा है । रेत में बहुत होता है। राणपुर में बहुत दिखता है, वहाँ श्मशान है न ? वहाँ जंगल जाते हैं न? वह क्या कहलाता है ? पौहटी... वहाँ बहुत देखने को मिलते हैं, बहुत
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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