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योगसार प्रवचन (भाग-१)
३९५ पहरी समझते हो? छोटी पीपल में चौंसठ पहरी तिखास / चरपराहट भरी है, वैसे ही आत्मा में पूरा केवलज्ञान, केवलदर्शन और आनन्द पड़ा है। कहो, समझ में आया? और उसे ही आत्मा कहते हैं । जैसे चौंसठ पहरी चरपराहट को ही पीपल कहते हैं। वैसे यह आत्मा अनन्तज्ञान. अनन्तदर्शन. अनन्तवीर्य अनन्त-आनन्द को ही यहाँ आत्मा कहा गया है। उसमें एकाग्र होने पर... जैसे पीपल में से शक्ति प्रगट होती है, वैसे आत्मा में से शक्ति -केवलज्ञान, केवलदर्शन और मोक्ष की दशा प्रगट होती है। उस पीपल के समान भगवान आत्मा की उपमा दी जाती है । आहा...हा...! समझ में आया?
यहाँ पत्थर की उपमा दी है, मूल शब्द पत्थर है। आत्मा पत्थर के समान दृढ़ और अमिट है। जैसे मजबूत पत्थर दृढ़ होता है और एक कणी भी नहीं खिरती । संगमरमर का बहुत चिकना पत्थर होता है, बहुत चिकना, उससे भी चिकने पत्थर की जाति होती है। संगमरमर से भी बहुत चिकना, हाँ! बहुत चिकना... एक कणी भी नहीं खिरे। कणी खिरे नहीं ऐसा चिकना... चिकना... चिकना... चिकना... रजकण का स्कन्ध ऐसा चिकना, परिणमित होता है न? कि उसमें से एक कणी नहीं खिरती; वैसे ही भगवान आत्मा, उसके असंख्य प्रदेश में अनन्त गुण का पिण्ड, उसमें प्रदेश और गुण, एक अंश भी नहीं खिरता, नहीं घटता – ऐसा वह चिकना अनन्त गुण का पिण्ड भगवान है।
दृढ़ और अमिट है, अपने अन्दर अनन्त गुण रखता है। जैसे पत्थर में बहुत दृढ़ता की शक्तियाँ रहती हैं, वैसे आत्मा में अनन्तज्ञान-दर्शन आदि शक्तियाँ रहती हैं। उन्हें कभी कम होने नहीं देता.... वह पत्थर उत्कृष्ट होता है और वह बहुत चिकना (होता है)। ऐसा का ऐसा सदा रहता है। उत्कृष्ट स्फटिक मणि है, देखो न यह लो! चन्द्र -सूर्य.... चन्द्र-सूर्य के पत्थर.... कभी एक कणी नहीं खिरती, कणी कम नहीं होती। अनादि-अनन्त ऐसा का ऐसा (रहता है)। चन्द्र-सूर्य का स्फटिक है न।
मुमुक्षु - वहाँ तो बँगले बनानेवाले हैं।
उत्तर - बँगले बनायेंगे। वह तो एक व्यक्ति ने इंकार किया है कि अब नहीं जा सकते – ऐसा आया है, सुना है ? यह सब गप्प, होने दो तो सही, वहाँ जाने के बाद आवे तो सही, अभी मरकर.... मुफ्त में गप्प ही गप्प... आकाश और पाताल एक करना चाहते